Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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मानवीय मूल्यों के ह्रास का यक्ष-प्रश्न : मानव ५९
हरिजन ही नहीं बनाया बल्कि कठोर सत्याग्रह के द्वारा उनके लिए मन्दिरों के द्वार भी खुलवाये और उन्हें हिन्दुजाति से अलग करने के दुष्चक्र को विफल कर देने के लिए आमरण अनशन के द्वारा अपने प्राणों की बाजी भी लगा दी। केन्द्रित अर्थव्यवस्था या केन्द्रित राजव्यवस्था में मानव को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर कुठाराघात देखकर उन्होंने आर्थिक क्षेत्र में खादी ग्रामोद्योग की विकेन्द्रित व्यवस्था एवं राजनैतिक क्षेत्र में ग्राम-स्वराज्य या पंचायती व्यवस्था आदि की नीव डाली और स्वयंसेवी संस्थाओं का जाल बिछा डाला। वे शान्ति के मन्त्रदाता ही नहीं बने, पूलिस के विकल्प में शान्ति-सेना का संगठन बनाया। पूंजीवाद और साम्यवाद के विकल्प के रूप में ट्रस्टीशिप का विचार तथा शोषण एवं उत्पीड़न के लिये असहयोग एवं अवज्ञा की रणनीति भी रक्खी। शिक्षा के क्षेत्र में एक ऐसी शिक्षा की योजना रक्खी जिसमें मानव की समग्रता सुरक्षित रहे और मानव को मक्ति मिल सके-“सा विद्या या विमुक्तये।" संक्षेप में, गाँधी ने मानवीय-मूल्यों के अभ्युत्थान के लिये मानव की स्वतन्त्रता के अनुरूप समाज-व्यवस्था की संरचना की। गांधी मानवमुक्ति के मन्त्र-द्रष्टा और स्वयं द्रष्टा ही नहीं बने, बल्कि ऐसी समाज-व्यवस्था के आचार्य भी बने जिसमें मानव स्वतन्त्रता की साँस ले सके । उसका मस्तक ऊंचा रहे, मस्तिष्क उन्मुक्त रहे एवं हृदय उदात्त एवं उदार रहे।
___यही कारण था कि गाँधी निष्ठावान हिन्दू होते हुए मो हिन्दुत्व की संकीर्णताओं से मुक्त रहे, प्रबल देशभक्त होते हुए भी संकुचित देशाभिमानी नहीं बने, हरिजनों के परम मित्र होकर भी सवणों के प्रति विद्वेष नहीं रक्खा और अंगरेजी शासन से सदैव संघर्ष करते हुए थी अंगरेजों से कभी घृणा नहीं की। गांधी ने बुराई से संघर्ष किया, बुरे आदमी के लिये दुर्भावना नहीं रक्खी। असल में उसे मानव की अन्तनिहित साधुता में अखण्ड विश्वास था। उसके अनुसार, मानवों के बीच प्रेम नैसर्गिक एवं स्वाभाविक है। हाँ, झंझट-झगड़े की वजहें हुआ करती हैं। यदि हम एक ऐसी मानवीय समाज-व्यवस्था का निर्माण कर विग्रह के कारणों को दूरकर सकें, तो मानव मूल्यों का ह्रास अवश्य रुक जायगा । आध्यात्मिक और नैतिक अभ्युत्थान के अलग से बड़े-बड़े साइन बोर्ड लगाने एवं उसके आन्दोलन खड़े करने से मानव-मूल्यों का ह्रास नहीं रुक सकता, जैसा मैंने प्रारम्भ में निवेदन किया था कि आज साम्यवाद से लड़ने का भी अमरीकी सो० आई० ए० द्वारा चालित शिखंडीनुमा तरीका ( एम० आर० ए० ) प्रतिक्रियोत्पादक ( रिएक्शनरी) होगा। दुर्भाग्य से जनतंत्र का सबसे बड़ा भौगोलिक क्षेत्र संयुक्त राज्य अमरीका विश्व में अधिनायकवादी सत्ता का ही पृष्ठ पोषण करता रहा है, चाहे वह भारत-पाक के बीच पाकिस्तान को मदद देने का हो, या जेरेन्डा, एल सल्वाडोर, ब्राजिल आदि देशों की जनवादी सरकारों के खिलाफ उन सरकारों को उलटने का सवाल हो। उसी तरह आनन्द मार्ग, जयगुरूदेव, साई-बाबा, ब्रह्म कुमारी, गायत्री यज्ञ तथा अन्य धार्मिक पुरातनवादी संस्थाओं के द्वारा नैतिक-आध्यात्मिक उन्नयन के कामों के विषय में गंभीरता पूर्वक चिंतन करना होगा कि समाज के ज्वलन्त आथिक-राजनैतिक-सामाजिक समस्याओं के समाधान के बिना नैतिक उन्नयन का विचार एक दिवास्वप्न रहेगा। आधुनिक भारत में अध्यात्म के नाम पर मन्त्रवाद और नैतिकता के नाम पर मात्र धार्मिक एवं नैतिक प्रवचन का ज्वार उठ रहा है । लेकिन इस तथा कथित नैतिक-आध्यात्मिक-धार्मिक घटाटोप से सामाजिक क्रान्ति की धार कुंद करने का दुश्चे क वृथा होगा। आग पर राख डाल देने से आग नहीं बुझती है, वह दब जाती है। अतः नैतिक मूल्यों के ह्रास को रोकने के लिये राजनीति का कायाकल्प सोचना होगा। भ्रष्ट से भ्रष्ट राजनेता इन नैतिक गुरुओं से आर्शीवाद ले जाय, इससे नैतिकता का राजनीतिकरण होता है, राजनीति का अध्यात्मीकरण नहीं। राजनीति कोई अस्पृश्य वस्तु नहीं जिसे हम छुएं नहीं। याद रक्खे-“सर्व धर्मा राजधर्मे निमग्नाः।" यह आवश्यक नहीं कि राजनीति के पद पर हम जाय ही, लेकिन राजनीति एवं राजनेताओं पर यदि नैतिक एवं धार्मिक नेता अपनी कड़ी निगाह एवं कठोर अनुशासन नहीं रखेंगे तो राजनीति उनका भी शोषण करने से नहीं चूकेगी। राजनैतिक भ्रष्टाचार, सिद्धान्तहीन
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