Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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जैन धर्म : भारतीयों की दृष्टि में ३७
मुक्ति का मार्ग त्रिरत्नमयी है : सम्यक् दर्शन या श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक चारित्र । सम्यक्-श्रद्धा में निम्न पाँच सिद्धान्त वर्णित है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ।
जैन जब साधुवृत्ति ग्रहण करता है, तो निम्न शपथ लेता है "मैं श्रमण बनूंगा । मैं घर, सम्पत्ति, पुत्र, पशु आदि कुछ नहीं रखूगा । मैं वह खाऊँगा जो दूसरे लोग मुझे देंगे । मैं पाप कार्य नहीं करूंगा।"
इस आधार पर वर्तमान और भावी जीवन कर्म-बन्ध से मुक्त होता है । जीव परमात्मा में विलीन हो जाता है । यह समुद्र में ओस विन्दुओं का गलन है । जैन प्रयत्नों का सर्वोच्च ध्येय परमात्मा में विलीन होना है । जैनों का स्वर्ग शांत, सुरक्षित तथा सुखी क्षेत्र है । वहाँ बुढ़ापा, दुख, रोग व मृत्यु नहीं होते ।
जैन मत में ईश्वर को कोई स्थान नहीं है। इसके विपर्यास में, जैन पूर्ण विकसित मनुष्यों में विश्वास करते हैं। उनके अनुसार निर्वाण केवल मानव योनि से ही हो सकता है। इसी प्रकार, जैन जाति प्रथा तथा ब्राह्मणवाद के पोषक वेदों को भी मान्यता नहीं देते ।
जैन दो वर्गों में विभक्त हो गये हैं : दिगम्बर और श्वेताम्बर । दिगम्बर नग्न रहते हैं, आगमों को मान्यता नहीं देते और महिलाओं को साधुपद के अधिकारी नहीं मानते । जलवायु सम्बन्धी प्रत्यक्ष कारणों से श्वेताम्बर उत्तर भारत के शीत क्षेत्रों में और दिगम्बर दक्षिण भारत के उष्ण क्षेत्रों में पाये धाते हैं। इनका एक सम्प्रदाय ओर हैस्थानकवासी । ये न मूर्ति पूजते हैं, न प्रार्थना करते हैं । इनके अनुसार, आत्मा सभो जगह मौजूद रहती है।
हम यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि विभिन्न युगों में जैनों की स्थिति क्या थी ? लेकिन इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि उन्होंने अनेक विचारकों को प्रभावित किया है। उत्तर भारत में उन्हें चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याश्रय मिला । दक्षिण भारत में उन्हें होयसलों का संरक्षण मिला। ये सदैव सापेक्षतः धनी रहे और इन्होंने कलाओं को संरक्षण दिया। इस देश में उनके कुछ मन्दिर सबसे सुन्दर माने जाते हैं। जन स्थापत्य कला के कुछ सुन्दर उदाहरणों के रूप में बिहार में पारसनाथ पहाड़ी, गिरनार, पालोताना में शत्रुजय, राणकपुर और आबू पर्वत पर दिलवाड़ा मन्दिर के नाम लिये जा सकते हैं। जैन मूर्तियाँ हिन्दू और बौद्ध मूर्तियों से भिन्न होती हैं । जैनों का कहना है "भक्त के लिए मूर्ति दर्पण के सामने कमल के समान होती है। मानव का मस्तिष्क उसके समक्ष विद्यमान वस्तु से प्रभावित एवं रंजित होता है। इसलिए जैन प्रतिमाएं विभावहीन और शान्त होती है। जैन साधु कहते हैं," किसी सुन्दर महिला के नग्न शव पर कामुक, कुत्ता एवं संत की प्रतिक्रियाओं पर विचार करो। कामुक उससे भोग करना चाहेगा, कुत्ता उसे खाना चाहेगा और सन्त उसको आत्मा की सद्गति चाहेगा। इसलिए तुम्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि ध्यान करते समय तुम जो भी देखो, वह ध्यान के उद्देश्यों के अनुरूप होना चाहिये ।"
मध्ययुग में हिन्दुओं के पुनर्जागरण एव शैवों द्वारा अन्य मतावलम्बियों को पीड़ित करने की प्रक्रिया का जैनों पर बहुत प्रभाव पड़ा । इससे जैनों को बड़ी हानि हुई क्योंकि वे हिन्दुओं से सर्वाधिक सम्बन्धित थे । इनका हिन्दुओं में इकतरफा विवाह भी होता था। स्वयं को संगठित कर अस्तित्व बनाये रखने के जैनों के प्रयत्नों को बहुत सफलता नहीं मिली । १८९३ में अखिल भारतीय जैन सम्मेलन का गठन किया गया। इसके छह वर्ष बाद १८९९ में जैन युवा परिषद् गठित की गई जो १९१० में भारत जैन महामण्डल के रूप में परिणत हुई । इसका उद्देश्य है-मैत्री भाव से सबको जीता जा सकता है ।
भारत में जैनों का प्रभाव उनकी सापेक्ष सम्पन्नता के कारण है। डालमिया, साराभाई, बालचन्द, कस्तूरभाई लालभाई, साहू जैन आदि भारत के बड़े-बड़े औद्योगिक घराने जैन हैं। इनकी साक्षरता भी उच्च है। महात्मा गांधी जैनों के अहिंसा सिद्धान्त से बड़े प्रभावित हुए थे। उन्होंने इनके नैतिक और व्यक्तिगत सिद्धान्त को राष्ट्रीय एवं राजनीतिक रूप देकर आगे बढ़ाया।
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