Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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श्रमण संस्कृति का विराट् दृष्टिकोण १५
जिस प्रकार अमूर्त आत्मा के साथ मूर्तयोगों मन, वचन, काया का अमूर्त आकाश के साथ मूर्त घटका, अमूर्त ज्ञान के साथ मूर्त मदिरा का सम्बन्ध हो जाता है, उसी प्रकार सांख्य का प्रकृतिवाद घटित हो सकता है | कपिलमुनि दिव्य ज्ञानी थे, अतः वह पूर्णतः असत्य कैसे कहते ?१२
"मूर्तयाऽध्यात्मनो योगो घटेन नभतो यथा । उपघातादि भावस्य ज्ञान स्येव सुरादिना । एवं प्रकृति वादोऽपि विज्ञेयं सत्य एव हि । कपिलोस्तत्व रुचेन दिव्यो हिस महामुनिः ॥
यह है - भिन्न विचार के प्रति सहिष्णुता । आवश्यक है कि मनुष्य की चित्तवृत्ति निर्मल, निष्कलुष, कषायरहित सम्यक दृष्टि से सम्पन्न हो, तो वह विरोध में भी अविरोध का दर्शन कर लेता है । इसी कारण उसका दृष्टिकोण विशाल रहा है ।
महान योगी आनन्दधनजी ने एक स्पष्ट बात कही है :
राम कहो, रहमान कहो, कोई कान्ह कही महादेव री । पारसनाथ कहो, कोऊ ब्रह्म, सकल ब्रह्म स्वमेव री ॥ भाजन भेद कहावत विध नाना, एक मृतिका रूप तेसे खण्ड कल्पना आरोपित, आप अखण्ड स्वरूप
किन्तु यह कम आश्चर्य का विषय नहीं है कि इतने उदार तथा समन्वयशील श्री संघ में भगवान महावीर के कुछ शताब्दियों के पश्चात् सचेल तथा अचेल के नाम पर विशृंखलता प्रारम्भ हुई। यह तो सर्वमान्य है कि भगवान महावीर निपट दिगम्बर थे । सचेलत्व का पक्षधर श्वेताम्बर सम्प्रदाय अचेलत्व की प्रशंसा करता है, किन्तु अपवादिक स्थिति में वस्त्र के उपयोग (सीमित मात्रा तथा प्रतिकूल परिस्थिति में) को मुनिधर्म के विपरीत नहीं मानता । अचेलत्व के आग्रह के कारण दिगम्बर को स्त्री मुक्ति का निषेध करना पड़ा । सर्वमान्य स्थिति यह है कि कर्मबन्धन तथा उससे मुक्तता का सीधा सम्बन्ध आत्मा से है । आत्मा अपने मूल स्वरूप में न तो पुरुष है, न स्त्री । कर्म से मुक्तता कषाय की अनुपस्थिति पर निर्भर होती है । शरीर पर्याय से उसका सम्बन्ध नहीं है। किसी भव्य जीव के केवल्य प्राप्ति के पश्चात् भी उसकी आत्मा शरीर में रहती है । गुण स्थान के क्रम में ( तेरहवाँ गुण स्थान ) सयोग केवली कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि उस केवली को मन, वचन, काया का योग प्राप्त है और वह क्रियाशील है किन्तु उसके रागद्वेष, मूलतः नष्ट हो चुके है, अनासक्त भाव से चरमसीमा ) जीवन व्यतीत करता है, इस कारण उसे कर्मबन्धन, नहीं होता । व्यावहारिक तथा विज्ञान की दृष्टि से भी देखें, तो जब तक शरीर है, उसे शरीर निर्वाह के आवश्यक होता है । यदि हम गहन चिंतन करें तो यह स्पष्ट होगा कि उपरोक्त बिन्दु ऐसे नहीं थे दोनों परम्पराओं में वैचारिक समन्वय नहीं हो सकता था ।
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यदि हम इतिहास की दृष्टि से देखें, तो ईसा की दूसरी शताब्दी में इस सांप्रदायिक अभिनिवेश में समन्वय के साधक एक संघ का उदय हुआ जिसे "यापनीय संघ" कहा गया । श्वेताम्बर परंपरा को मान्यता से अचेलत्व- सचेलत्व का विवाद वीर निर्वाण से ६०९ वर्ष पश्चात् ( ८२ ईसवी में ) तथा दिगम्बर परंपरा की मान्यता के अनुसार ई० सं० ७९ में हुआ । दिगम्बर श्वेताम्बर संघ भेद के ६०-७० वर्षं पश्चात् ही ( ई० सं० २४८ में ) यापनीय संघ का
१२. " श्रमण " वाराणसी, अगस्त, १९८३, 'सर्वधर्म समभाव और स्याद्वाद', लेखक सुभाषमुनि ।
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