Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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१४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
करके अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता था । श्रमण संस्कृति के दृष्टिकोण को विराटता को, इस प्रारम्भिक परिचय के पश्चात्, उदाहरण रूप में निम्नलिखित बिन्दुओं से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि यह संस्कृति देश-काल से परे समस्त प्राणी जगत् की उन्नति के लिये प्रयत्नशील थी। यही कारण है कि उत्तर काल में इस संस्कृति का प्रचार-प्रसार विदेशों में हुआ।
१. जैन परम्परा में "नमस्कार मंत्र" अत्यन्त पवित्र माना जाता है, जिसमें गुणों के आधार पर अरहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधुजन को नमस्कार किया गया है. किसी व्यक्ति विशेष को नहीं। यही नहीं, अपितु अन्तिम पद “साधु" शब्द में "लोक के समस्त साधुजन" को आराध्य मानकर नमन किया गया है। केवल इस देश के ही नहीं, देश-विदेश ( समस्त लोक ) के समस्त साधुजन इसमें अभिप्रेत
है । साथ ही लिंग, वेश, जाति, देश से परे यह व्यवस्था है, किन्तु उसमें साधुता अनिवार्य है। २. मानव जाति का अन्तिम लक्ष्य निःश्रेयस की प्राप्ति है। इसके लिये प्रत्येक धर्म के मनीषी, तत्व-चिंतकों ने मानव जाति का पथ प्रदर्शन किया है। उसको किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय का अनुयायी या दीक्षित होना जरूरी नहीं है। इस सार्वभौम सिद्धान्त के अनुसार, जैन धर्म में मान्य सिद्ध अवस्था को ( अन्तिम लक्ष्य) प्रत्येक व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। पन्द्रह प्रकार से सिद्ध होते हैं, उनमें स्वलिंग (जैन धर्म में मान्य परम्परा ), अन्य लिंग ( अन्य धर्मों में मान्य परम्परा ), तीर्थ सिद्ध ( जैन धर्म का अनुयायी ), अतीर्थसिद्ध (जिसने जैन धर्म को अंगीकार नहीं किया ) उस परम्परा के वेश में भी वह सिद्ध हो सकता है। वस्तुतः
जब आत्मा राग-द्वेष से रहित शुद्ध अवस्था पर पहुंच जाती है, तब सिद्ध अवस्था में स्थित हो जाती है । ३. तीर्थंकर महावीर के प्रमुख शिष्य ( गणधर ) इन्द्रभूति गौतम थे । वे पूर्व में वेद एवं वैदिक साहित्य के
मनीषी, मर्मज्ञ प्रकाण्ड विद्वान थे। तीर्थकर महावीर से शंकाओं का समाधान पाकर वे दीक्षित हो जाते हैं ।
इन्द्रभूति तीर्थकर महावीर के विशाल संघ के प्रथम गणधर थे। ४. ऋषिभाषित ( रिषिभासियाई ) श्रमण-परम्परा का एक विशिष्ट ग्रन्थ है। इसमें जैन दर्शन के तत्व चिंतक,
वैदिक दर्शन के ऋषि, परिबाजक तथा बौद्ध भिक्षुओं के आध्यात्मिक उपदेश संग्रहीत हैं। यह ग्रन्थ इस देश की त्रिवेणी के रूप में ( जैन, बौद्ध, वैदिक धारा ) समन्वय का संदेशवाहक तथा साम्प्रदायिक व्यामोह के पाश को तोड़ने के लिए मार्गदर्शन करता है। आध्यात्मिक उपदेश चाहे किसी परम्परा के हो, वरेण्य हैं और आत्मा को उन्नत अवस्था तक के जाने में सहायक होते हैं। यही कारण है कि श्रमण संस्कृति के आदि पुरस्कर्ता ऋषभदेव का अनुयायी अंबड परिव्राजक भी था।'° संक्षेप यह है कि श्रमण संस्कृति के मनीषी आचार्यों ने इस दिशा में जैन दर्शन द्वारा मान्य अनेकान्त दृष्टि से भिन्न-भिन्न मतवादों में सामन्जस्य करने का प्रयत्न किया है। नय (सापेक्ष सिद्धान्त ) की नींव पर खड़ा अनेकान्त या स्याद्वाद
समन्वयशील रहा है । वैसे जितने वचनपथ है, उतने नय है।"
इसके लिए एक उदाहरण पर्याप्त होगा। महान आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में सांख्य दर्शन तथा उसके प्रणेता कपिल मुनि के सम्बन्ध में कहा था:
१०. रिसिभाषियाई सुत्तं, संपादक मनोहरमुनिजी, पृ० १८, १९ । ११. षडदर्शन समुच्चय, सं० श्री विजयजम्बूसूरि, वीर संवत् २४७६ ।
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