Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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अध्यात्म अमृत-कलश : एक समीक्षा
Astro हरींद्र भूषण जैन
निदेशक, अनेकांत शोधपीठ, बाहुबली-उज्जैन (म० प्र०)
जैनों में कुंदकुंद के प्राभृतत्रय की मान्यता पिछले एक हजार वर्षों से अविच्छिन्न बनी हुई है । इसमें भी समयसार का महत्त्व सर्वाधिक है । यद्यपि यह ग्रन्थ मुख्यतया यति और मुनिजनों को शुभ एवं शुद्ध उपयोग के प्रति प्रेरणार्थ निबद्ध है फिर भी इसमें ज्ञानी के समान अज्ञानी भी अज्ञान विमूढाता, ज्ञानमय प्रणाध्यन के अनुसार ज्ञानभाव के उच्चतम स्तर को प्राप्त करने के लिये प्रेरित किये गये हैं । इस ग्रन्थ पर आशाचन्द्र, जयसेन, शुभचन्द्र, राजमल, बनारसीदास, गणेश प्रसाद वर्णी आदि की टीकायें इसकी महत्ता और लोकप्रियता व्यक्त करती हैं। पंडित जी के अनुसार (i) गुरुजनों द्वारा जागृत रुचि, (ii) इन्दौर में दो बार पर्यूषणवाचना के समय जिज्ञासुओं के शंका-समाधानों के प्रकाशन का तीव्र आग्रह एवं (iii) स्वांत: सुखी आत्मप्रबोध के परिप्रेक्ष्य में अमृतचंद्र के समयसार के पद्यबद्ध 'अमृत कलशों' पर उन्होंने विस्तृत टीका लिखी और उसका नाम 'अध्यात्म अमृत कलश' रखा । अन्य टीकाओं की तुलना में जिज्ञासुओं के हितार्थ ४७७ प्रश्नों का आध्यात्मिक एवं आगमिक दृष्टि से किया गया समाधान इस ग्रंथ का हार्द एवं वैशिष्ट्य है ।
अध्यात्म अमृत कलश १९२७ सेमी० के ४०९ पृष्ठों में निबद्ध है। प्रस्तावना, प्राक्कथन आदि के ७० पृष्ठ इसके अतिरिक्त हैं । इसका प्रथम प्रकाशन १९७७ में श्री चंद्रप्रभ दिगंबर जैन मंदिर, कटनी से हुआ । इसकी द्वितीयावृत्ति १९८१ में आई और अब तृतीयावृत्ति मुद्रण में गई है। इससे इस ग्रंथ की लोकप्रियता ज्ञात होती है । इस प्रकाशन संस्था के सर्वस्व श्री धन्यकुमार सिंघई ने संस्थापरिचय में इस बात पर बल दिया है कि जिन मंदिर का द्रव्य केवल मंदिर-मूर्ति निर्माण में ही व्यय न ऊपर भी व्यय किया जाना चाहिये। यह जिनवाणी प्रसार के लिए प्रेरक प्रक्रिया है । ( इसी मंदिर से अभी कुमार कवि रचित 'आत्मप्रबोध' भी पंडितजी के भाषान्वयार्थ सहित प्रकाशित हुआ है ।) पंडितजी के अनन्य सहाध्यायी स्व० पं० कैलाशचंद्रजी शास्त्री के 'प्राक्कथन' एवं पं० फूलचंद्रजी शास्त्री के 'जिनशासन' शीर्षक वक्तव्यों से तथा उपाध्याय श्री विद्यानंदजी एवं आचार्य श्री विद्यासागरजी के निर्देशानुग्रहों से इस ग्रंथ की आगमाविरोधिता तथा प्रामाणिकता पुष्ट होती है ।
कर जिनवाणी के
ग्रंथ की प्रस्तावना
इस टीका ग्रंथ की प्रस्तावना में टीकाकार पंडितजी ने प्रामाणिक साक्ष्यों द्वारा अमृतकलशकार अमृतचन्द्र को नदिसंधी आचार्य यथाजातरूप निर्गुणता के पोषी एवं शुद्धाम्नायी प्रमाणित किया है और उनका समय ९०५ - ९९६ ई० निर्णीत किया है। इसके अतिरिक्त पंडितजी ने अमृतचन्द्र और जयसेन द्वारा की गई 'समयसार ' टीकाओं में पाई जाने वाली भाषा-संख्याओं के अन्तर सम्बन्धी डा० उपाध्ये की व्याख्या को आलोकित करते हुए स्पष्ट मत दिया है कि इनमें अधिकांश गाथायें क्षेपक हैं मूल नहीं । उन्होंने यह भी उद्धृत किया है कि बलभद्रजी ने अपने समयसार -संपादन के समय पैंतीस ताड़पत्रीय प्रतियों में से अजमेर व मूड़विडी की प्राचीन प्रतियों में अमृतचन्द्र के अनुरूप ही गाथायें पाईं। समयसार पर भावी लेखकों को यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिये । साथ ही उन्हें प्राचीन आचार्यों की कृतियों के अन्तः - परीक्षण एवं समीक्षण के बाद ही उनकी यथार्थता का प्रतिपादन करना चाहिये । इन मतों से अनेक भ्रांतियाँ निरस्त हुई हैं । प्रस्तावना के दूसरे अंश में आठ ऐसे ग्रन्थांतगति प्रकरणों का संक्षेपण किया है जो वर्तमान युग में चर्चा के विषय बने हुए हैं। इनमें से निम्न चर्चायें महत्वपूर्ण हैं :
(i) पंडितजी ने यह स्पष्ट बताया है कि आरम्भिक और आध्यात्मिक निरूपण दृष्टियों में मात्र आभासी विरोध है । यह नयदृष्टि से सामंजस्य और अविरोध का रूप लेता है । एक ओर जहाँ अध्यात्म मार्ग
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