Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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जैनधर्म : प्राचीनता का गौरव और नवीनता की आशा ९ ___ भारत में आर्यों का इतिहास लगभग छः हजार वर्ष का है। अतः लाखों-करोड़ों वर्षों का वर्णन निराधार प्रतीत होता है । चौबीस तीर्थंकरों का इतिहास भी इस दृष्टि से तथ्यपूर्ण नहीं लगता। यह वर्णन इतिहास-ज्ञान के लिये नहीं, जैन धर्म की उपयोगिता बताने के लिये था । जैनधर्म ने महावीर को धर्मकर नहीं कहा, तीर्थकर कहा क्योंकि अहिंसा, सत्यादि धर्म कोई नहीं स्थापित करता । एक वर्म में एक ही तीर्थंकर होता है, अन्य अरहंत, जिन, सर्वज्ञ आदि होते हैं । फिर भी, जनों को चौबीस तीर्थकर मानने पड़े । इसका उद्देश्य भी ऐतिहासिक न होकर उपयोगिता एवं महत्व प्रदर्शन रहा है।
महावीर से एक श्रद्धालु ने पूछा, "क्या आपके बिना हमारा उद्धार न होगा?'' इस प्रश्न के दोनों प्रकार के उत्तर परेशानी में डालने वाले प्रतीत हुए। अतः उन्हें कहना पड़ा, "हमारे धर्म के बिना तुम्हारा उद्धार न होगा। अभी तक जिनका उद्धार हुआ, वह जैन धर्म से ही हुआ। मैं तो अन्तिम तीर्थकर हूँ, मेरे पहिले तेईस और हो गये हैं।" वस्तुत यह तथ्य नहीं है, उपयोगितावादी चतुर दृष्टिकोण है ।
अमेरिकी लेखक इमरसन मानता है कि प्रत्येक संस्था उसके संस्थापक के जीवन की छाया होती है। जैन धर्म भी महावीर के जीवन की छाया है, उन्होंने जो कहा, उसे जीवन में उतारा । उनकी प्रकृति सहिष्णुता प्रधान थी, वे प्रतिकार की उपेक्षा करते थे। वस्तुतः, राजमार्ग यह है कि यथाशक्य प्रतिकार किया जावे। फिर भी, जो रह जावे, उसे सहन किया जावे । जैन धर्म में प्रतिकार और सहिष्णुता के बीच समन्वय नितान्त आवश्यक है। आधुनिक युग के लिये जैन धर्म की आशावादी रूपरेखा
जैन धर्म के प्रति विशेष अनुराग होने से मैंने बरसों पूर्व जैन मत को विज्ञान-समन्वित बनाने और उसके कायाकल्प की इच्छा से 'जैन धर्म मीमांसा' नामक ग्रन्थ लिखा था। इसका उद्देश्य था कि जैन धर्म इस युग में भी मानव के लिये अधिकाधिक कल्याणकारी बन सके और उसके अकल्याणकारी अंश दूर किये जावें। जैन धर्म में नवीनता को ग्रहण करने की क्षमता है, क्योंकि वह परीक्षाप्रधानी है। इस दृष्टि से मैं जैन धर्म में निम्न धारणाओं के समाहरण का सुझाव देना चाहता हूँ :
(अ) धर्म का लक्ष्य इसी लोक को अधिकाधिक सुखी बनाने की ओर रहे, परलोक का लक्ष्य गौण माना जावे । (ब) विश्व रचना तथा द्रव्यवर्णन को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मानकर उनके प्रयोग एवं विज्ञान सम्मत रूप
का समाहरण किया जावे। (स) सर्वज्ञता की व्यावहारिक एवं वास्तविक परिभाषा मान्य की जावे, अलौकिकता को प्रेरित करने वाली
परिभाषा आलंकारिक है। (द) महावीर ने दिगंबरत्व को साधुता एवं आत्मविकास का उत्तम सोपान बताया था। पर इसे अनिवार्य नहीं
मानना चाहिये । पीछी-कमंडलु के समान सचेलता भी साधुता में बाधक नहीं मानी जानी चाहिये । (य) जैनों के तीनों सम्प्रदायों में समन्वय एवं सुधार होना चाहिये । दिगंबरत्व को अनिवार्यता ने जैन धर्म को
बहुत अनुदार बना दिया है। सात्विक अशन-पान, पोछी-कमंडलु, शास्त्र-परिग्रह एवं अल्पचेलता में भी साधुता रह सकती है । संप्रदाय-व्यामोह का त्याग होना चाहिये ।
श्वेतांबर मन्दिरों की मूर्तियां महावीर के धर्म की विडम्बना हैं । उन्हें दिगम्बर-वेशी रखने में ही गरिमा है । स्थानकवासी या तारणपंथ मुस्लिम सत्ता के प्रभाव की उपज है। अब युग बदल गया है।
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