Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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श्रमण संस्कृति का विराट् दृष्टिकोण
सौभाग्यमल जैन एडवोकेट शुजालपुर ( म०प्र०)
श्रमण संस्कृति के विराट् दृष्टिकोण पर विचार करने के पूर्व 'संस्कृति' शब्द पर विचार कर लेना जरूरी है। मेरे अल्पमत में धर्म और संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कोई संस्कृति धर्म रहित हो या कोई धर्म संस्कृति रहित हो, यह असम्भव है। जब मैं "धर्म" शब्द का प्रयोग करता हूँ, तो मेरा तात्पर्य सार्वकालिक, सार्वभौम, धार्मिक तत्त्वों से है, जो देशकाल से परे है। कोई धर्म असंस्कृत हो, यह सम्भव नहीं है । पं. जवाहरलाल नेहरू ने "संस्कृति" शब्द पर कई विद्वानों के मत को उद्धृत कर अपना मत व्यक्त किया था कि "संस्कृति" मन, आचार, रुचियों का परिष्कार या शुद्धि है। यह सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना है। भारत की संस्कृति सामाजिक तथा समन्वयशील रही है।' इसी प्रकार "धर्म अने संस्कृति" की प्रस्तावना ( सम्पादक की कलम से ) में विभिन्न विद्वानों, दार्शनिकों के मत का उल्लेख करके यह निष्कर्ष निकाला गया है कि संस्कृति वही मानी जानी चाहिये, जहाँ धर्म, दर्शन, कला का अस्तित्व हो । आखिर, धर्म भी मनुष्य के मन को परिष्कृत करके उसके आचार तथा रुचि को सुसंस्कृत बनाता है ।
भारत में प्राग् ऐतिहासिक काल से दो संस्कृतियों का अस्तित्व रहा है : १. श्रमण संस्कृति और २. ब्राह्मण संस्कृति । "श्रमण" शब्द में श्रम निहित है। ऐसी संस्कृति, जिसमें मानव जीवन के उच्चतम शिखर तक को श्रम के द्वारा प्रात किया जा सके, किसी की कृपा के आधार पर या याचना करके नहीं। इसके अतिरिक्त, श्रमण शब्द के गर्भ में १. श्रम, २. सम, ३. शम, भावनाएं विद्यमान हैं। इन तीनों का दर्शन श्रमण संस्कृति में होता है। ब्राह्मण संस्कृति का नेतृत्व वैदिक ब्राह्मणों के पास था। यह अधिकतर तत्कालीन राजाओं, धनिक वर्ग से राजसूय यज्ञ ( हिंसापूर्ण) कराकर देवों की प्रसन्नता प्राप्त करने का मार्ग बताती थी। इस परम्परा में वेद स्वतः प्रमाण थे । वेद को अप्रमाणित कहने वाला नास्तिक माना जाता था। श्रमण संस्कृति परीक्षा प्रधान थी। वेद को स्वतः प्रमाण मानने से इंकार करती थी तथा स्वयं के कृत कर्मों के बल पर ही उसका कल्याण या अकल्याण हो सकता है, यह मानती थी। त्याग, तप आदि पर बल देती थी। श्रमण संस्कृति का नेतृत्व क्षत्रिय लोगों के पास था, जिसका । क्षेत्र पूर्वी भारत था। यह पृथक् बात है कि आगे चलकर दोनों संस्कृतियों में सामंजस्य बिठाने का कुछ प्रयत्न समन्वयशील मनीषियों ने किया, जो कुछ सीमा तक आदान-प्रदान के मार्ग पर चला। इस देश की दोनों संस्कृतियों के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर जो मत भिन्नता रही है, उसका कुछ संकेत आचार्य नरेन्द्रदेव ने अपनी एक पुस्तक की प्रस्तावना में किया है, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि "ब्राह्मण संस्कृति" से भिन्न एक संस्कृति प्राग वैदिककाल से ही विद्यमान थी, जिसमें मुख्यतः अहिंसा मूलक निरामिष आहार, विचार, सहिष्णुता, अनेकान्तवाद एवं मुनि परम्परा का प्राबल्य था । १. संस्कृति के चार अध्याय, दिनकर, पृ० ५-६ । २. धर्म अने संस्कृति, प्रस्तावना, पृ० १०।। ३. भारतीय संस्कृति का विकास ( वैदिकधारा), डॉ० मंगलदेव शास्त्री, प्रस्तावना ।
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