Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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८४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
शुद्धोपयोगी है, वहीं आगम-मार्ग शुद्धोपयोग को भी महत्व देता है क्योंकि यही शुद्धोपयोग का मार्ग है। अध्यात्मदृष्टि साक्षात् साधन को ही साधन मानती है जब कि आगमिक दृष्टि इसे तो स्वीकार करती ही है, अन्य बिमित्तों को भी साधन मानती है । आगमिक दृष्टि पर्याप्त व्यापक है एयं सर्वजन हिताय है । एक दृष्टि सिद्धान्त है, तो दूसरी सिद्धान्त तक पहुँचाने का मार्ग है । इसी आधार पर व्रतादि की उपयोगिता का पंडितजी ने पूरी तरह समर्थन किया है।
(ii) पंडित जी धावक को, अज्ञानी को भी समयसार--जैसे सिद्धांत ग्रन्थों के अध्ययन-मनन का अधिकारी मानते हैं और, संभवतः पद्मनंदि के 'तत् प्रति प्रीतिचित्तेन निश्चतं भवेत् भव्यो' के मत के समर्थक है। द्वादशानप्रेक्षा में उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रों का निरूपण भी इसी मत का पोषक है। इस प्रकरण में यदि किचित् आनुभविक, बौद्धिक या मनन-स्तर की कोटि का निरूपण भी, शास्त्रीय भाषा के साथ होता, तो अधिक उपयुक्त होता।
(ii) कुंदकुंद बड़े वैज्ञानिक थे। उनका कथन है कि जीवन के शुद्धतत्त्व को स्वानुभूति, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ही जाना जा सकता है। उसे मेरे कहने से स्वीकार न करें। पंडित जी ने पाया है कि अमृतचंद्र ने अपने कलशों में लगभग दो दर्जन स्थलों पर अध्यात्म-विद्या की स्वानुभविता का उल्लेख किया है। वैज्ञानिक बाह्यजगत् के लिये प्रयोग-सिद्धता को महत्व देता है तो आध्यात्मिक अन्तर्जगत् के लिये अन्तःप्रयोगों को स्वीकार करता है। पंडितजी ने द्रव्य एवं पर्यायगत शुद्धता की चर्चा कर अमृतचन्द्र के आभासी बिरोधी कथनों (प्रवचनसार २३७, २५४) का अच्छा समाधान किया है।
(vi) पंडित जी ने चतुर्थ गुणस्थानी अविरत सम्यग्दृष्टि को प्रमाणोपेत तर्कों के द्वारा सम्यक चारित्री बताया है, पर संयमाचरणी नहीं। वह संयमाचरणी अनन्तानुबंधी के अतिरिक्त अन्य कषायों के अभाव में ही हो सकता है । इसका अर्थ यह है कि संयमाचरण चारित्र का स्तर उच्चतर होता है।
(v) पंडित जी ने मतिश्रुत ज्ञानियों के आत्म-प्रत्यक्ष संबंधी चर्चा में मतिज्ञान के स्वसंवेदन-रूप पाल के संबंध में अनेक आचार्यों को मत देकर अपनी गम्भीर एवं तुलनात्मक अध्ययनशीलता का परिचय दिया है। उन्होंने पंचाध्यायी के अनुसार, मतिज्ञान के स्वानुभूत्यावरण-भेद के क्षयोपशम में आत्म-प्रत्यक्षत्व का समर्थन किया है । इनकी परोक्षता पर-पदार्थ ज्ञान में ही है । ग्रंथ में वणित कुछ शंका-समाधान
__ शंका-समाधान 'आत्मप्रबोधिनी' टीका का हार्द है। यह पंडित जी की निश्चय-प्रधान व्यवहारोन्मुखी बौद्धिकता को प्रकट करती है। यह उनकी बहुश्रुतज्ञता, हस्तावलंब सिद्धांतज्ञता, तर्कशक्ति एवं तत्कामी बुद्धि का भी आभास देती है। उन्होंने मंगलाचरण, तीर्थङ्कर की स्तुति, शरीराधारित जिनवाणी मूर्ति की व्यवहारनयात्मक उपादेयता एवं भाषा-रूपकता, केवली की जड़वाणी की शुभकार्य निमित्तताजनित उपयोगिता, जीव के लिये प्रथम हस्तावलंब एवं विभाव वर्णनात्मक रूप में व्यवहारनय की सम्यक्त्वता, पनिहारिन और नृत्यांगना के उदाहरण के द्वारा सत्यअसत्यार्थ के हेयो-पादेयरूप अर्थ का प्रतिबोधन, आध्यात्मिक दृष्टि से पुत्र-मित्रादि या महापुरुषों की जयंतियों को अवती दशा का मानकर अविवेक रूप में स्वीकृति एवं दीक्षा दिवस या तीर्थङ्कर कल्याणकों को सम्यग् दर्शन के प्रेरक के रूप में मनाने की स्वीकृति, वर्तमान संसारी जीव की विभाव पर्यायता के भेदज्ञान की सोदाहरण प्ररूपणा, प्रवचन की अनैकानिकता, द्रव्य और भावकर्म के जड़ होनेपर भी उनकी जीव के साथ अनुभाग-शक्ति संयोगजदित निमित्तनैमित्तिकता, रागादि विकारों के अस्तित्व एवं सत्यत्व के तथ्य को गौण मानकर शुद्धनय की ओर प्रवृत्ति-प्रेरणा, स्वभाव-विभावों का अन्योन्य सम्बन्ध, शुद्ध जीव की अवबोधनता, द्रव्य की कालिकता एवं पर्याय की तत्कालता के
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