Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
शिक्षा से ये पांचों संदर्भ सघते हैं ? क्या वास्तव में अज्ञान आदि से मुक्ति मिलती है ? यदि अज्ञान आदि से मुक्ति मिलती है, तो वह शिक्षा परिपूर्ण है और यदि नहीं मिलती है, तो उसमें कुछ जोड़ना शेष रह जाता है । जीवन-विज्ञान की पूरी कल्पना इन सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में की गई है। जिन-जिन संदर्भों में मुक्ति की बात सोच सकते हैं, वे बातें शिक्षा के द्वारा फलित होनी चाहिये ।
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आज शिक्षा के द्वारा अज्ञान की मुक्ति अवश्य ही हो रही है । आज ज्ञान बढ़ रहा है, बौद्धिक विकास हो रहा है | किन्तु संवेग के अतिरेक से मुक्ति आदि की बातें शिक्षा से जुड़ी हुई न हों, ऐसा प्रतीत होता है। लोगों की धारणा यही है कि यह बात धर्म के क्षेत्र की है, शिक्षा के क्षेत्र की नहीं है । यह धारणा अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि धर्म का मूल अर्थ ही है संवेगों पर नियन्त्रण पाना । यह धर्म के मंच का काम होना चाहिये। शिक्षा क्षेत्र का यह कार्य क्यों होना चाहिये ? ऐसा सोचा जा सकता है । पर वर्तमान परिस्थिति में धर्मं की भी समस्या है और वह यह है कि धर्म का स्थान मुख्यतः सम्प्रदाय ने ले लिया | इसलिए साम्प्रदायिक वातावरण में धर्म के द्वारा संवेग नियन्त्रण की अपेक्षा रखना निराशा की बात है ।
सोचता है और वहाँ से
एक स्थिति यह है कि आज का विद्यार्थी जिस परिवार में जन्म लेता है, जहाँ पलता है, उस परिवार में जो धार्मिक संस्कार है, जिस सम्प्रदाय की मान्यता है, उसके सम्पर्क में भी वह बहुत कम रह पाता है। दिन में वह इतना व्यस्त रहता है कि उठते-उठते ही वह विद्यालय जाने की बात लौटने पर गृहकार्य ( होम वर्क ) निमग्न हो जाता है । कभी-कभी ऐसा होता है कि एक घर रहते हुए भी पिता-पुत्र मिल नहीं पाते । आज सामाजिक वातावरण और स्थितियाँ ही ऐसी बन गई हैं। एक व्यक्ति से मैंने पूछा- क्या तुम कभी अपनी सन्तान को शिक्षा देते हो ? वह बोला—'महाराज जी ! मैं सुबह देरी से उठता हूँ, तब तक लड़का स्कूल चला जाता है । जब वह स्कूल से
में
लौट कर आता है, तब तक मैं आफिस में रहता हूँ। जब मैं देरी से घर लौटता हूँ, सुबह जल्दी उठकर चला जाता है । आमने-सामने होने का कभी अवसर ही नहीं आता कुछ बात कर लेते हैं, और समाप्त' ।
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ऐसे वातावरण में धर्म के द्वारा बच्चे को कुछ मिल सकेगा, ऐसी सम्भावना नहीं की जा सकती । इस स्थिति में बालक का निर्माण शिक्षा से जुड़ जाता है । अतः हमें सोचना होगा कि शिक्षा के साथ कुछ ऐसे तत्त्व और जुड़ने चाहिए, जिनसे बच्चों के संस्कारों का निर्माण हो और उसे वह मौका भी मिले कि वह अपने संवेगों और संवेदनाओं का परिष्कार भी कर सके । आज दोनों कामों को एक ही मंच से करना होगा। बच्चों का निर्माण भी हो और संस्कार - परिष्कार भी हो । शिक्षा के क्षेत्र से ये दोनों काम हो सकते हैं। इस दृष्टि से शिक्षा जगत् का दायित्व दोहरा हो जाता है । यह बहुत बड़ा दायित्व है । 'फेरो' ने बहुत बड़ी बात कही है - 'वर्तमान विद्यालय व्यक्ति को साक्षर बनाते हैं, शिक्षित नहीं बनाते ।' साक्षर बनाना एक बात है और शिक्षित करना दूसरी बात है । आज की साक्षरता भी कुछ भ्रमवश स्मृति और बुद्धि को
ऐसी हो गई है कि उसकी तुलना कम्प्यूटर या टेपरिकार्डर से की जा सकती है । हमने एक मान लिया है। स्मृति और बुद्धि एक नहीं है। कम्प्यूटर में इतनी तीव्र स्मृतियाँ नियोजित हैं कि आदमी उसके सामने कुछ भी नहीं है, बहुत छोटा है। आज का युग कम्प्यूटर का होता जा रहा है। सूचनाओं, ज्ञान और आंकड़ों का सम्बन्ध स्मृति से है । टेपरिकार्डर सारी बात दुहरा देता है ।
तब तक वह सो जाता है और
केवल रविवार को मिलते हैं,
शिक्षा का काम केवल स्मृति को बढ़ाना ही नहीं; केवल आंकड़ों से मस्तिष्क को भरना ही नहीं है, साक्षरता ला देना ही उसका काम नहीं है, उसका काम भावों का परिष्कार भी । इसी से व्यक्ति में स्वतन्त्र निर्णय, स्वतन्त्रचिन्तन और दायित्व बोध की क्षमता विकसित होती है । यह तभी सम्भव है कि शिक्षा
केवल साक्षरताभिमुख न रहे ।
उसमें कुछ और भी जुड़े ।
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