Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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कविता लेखक श्रीमान् विद्वद्-वर पं० गोपाल दास जी वरैया (१८६६-१९१७) के शोक में रचित
जो है हुआ वह था, हमारा, भाग्य आज पलट गया । जो सूर्य जैन समाज में था, हाय, वह भी खो गया ।। गोपाल दास सुधी सुपंडित, मान्यवर वाचस्पति । थे न्याय के वाचस्पति, अरु स्याद्वाद-सुवारिधि ।। प्रतिवादियों को जीतने में थे बड़े अतिसाहसी । जैसे कि हस्ति - समूह को है, दूर करता केशरी ।। वे वारि-दिग्गज केशरी हैं, अब नहीं संसार में । वे ग्रसित काल-कराल से, हो गये कलिकाल में । हम छात्र - वर्गों का नहीं, ऐसा बचा संसार में । जो कर सके हमको सुशिक्षित, हाय ! इस दुष्काल में ।। हा ! आज जैन समाज के भी भाग्य हैं कैसे फिरे । हम शोक व्याकुल छात्र-गण, बेमौत के मौतों करे ।। क्या ही भयंकर चैत्र शुक्ला, पंचमी का दिन हुआ । जिस दिन कि जैन समाज का, इक रत्न कर से खो गया ।। वे थे अभी इस भूमि पर, यह क्या हुआ, हा ! देव रे । रे, दुष्ट, हा हा देव ! तूने क्या किया अंधेर ये ।। प्रतिवादियों को जीतने का, काम पड़ता है कभी । पर याद आती आपकी, पर जोर कुछ चलता नहीं ।। चारों दिशा में देखते हैं, शून्य दिखता है सभी । हा ! हे हमारे पूज्यवर, दर्शन न होंगे अब कभी ।। प्रिय पाठको, अति शोक में अब, लेखनी चलती नहीं । इस शोक रूप समुद्र में, डूबे हुए हैं हम सभी ।। बीतें हजारों वर्ष पर, यह दुःख भूलेंगे नहीं । हे पूज्यवर, क्या प्राज्ञवर, हम मिल सकेंगे फिर कभी॥ प्रिंसिपल, सिद्धान्त विद्यालय, मोरेना के वही । थे, मगर हा, शोक है, वे दृष्टिगोचर हैं नहीं । यद्यपि नहीं संसार में, पर नाम उनका ख्याल है। हे जैन जाति, उठो, सुनो, अब शोक करना व्यर्थ है॥ १., २. जिन पुरुष को कल 'है' कहते थे, उसे आज 'थे' ऐसा
कहना पड़ रहा है।
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