Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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इन सरागी देवी देवताओं की उपासना कुछ दि० डैन पण्डित भी करते हैं। पण्डित बुद्धजीवी हैं । उनमें तर्क-वितर्क कुतर्क करने की क्षमता होती हैं। वे अपनी इस क्रिया को तर्क से सिद्ध करते हैं तथा सामान्य जन को बताते हैं कि राजा के साथ राजा के सेवक भी आते हैं। उनका भी आदर करना होता है। यदि न किया जाय, तो राजा को वे अप्रसन्न कर सकते हैं । इसी प्रकार भगवान् के साथ में भगवान् के सेवक हैं, जो जिन शासन के रक्षक हैं, अतः उनका सम्मान भी किया जाता है।
इस तक पर विचार करें तो मालूम होगा कि यह धोखा है-कुतर्क है। राजा तो रागी द्वेषी होता है, प्रतिष्ठा-पूजा का भूखा होता है। राजकर्मचारी नाराज हो जाय, उसे सम्मान न मिले, रिश्वत-घूस न मिले, तो राजा से चुगली भी करके राजा को आपके विरुद्ध कर सकता है। अतः भय से राजकर्मचारी को सम्मान रुयया पैसा भेंट दी जाती है । इसी प्रकार क्या तीर्थकर प्रभु राजा की तरह पूजा-प्रतिष्ठा के लोभी हैं ? यह प्रश्न है ।
___ दूसरा तर्क है कि ये जिन शासन के रक्षक हैं. किन-किन धर्मात्माओं ने इनकी पूजा आराधना की और किन-किन की सहायता-सेवा-रक्षा इन देवी देवताओं ने की, इसका एक भी उदाहरण जैन पुराणों में नहीं है । जिनकी सहायता की है उनके नाम है : सती सीता, अंजना, द्रौपदी, रयणमंजूषा, मुनियों में अकलंक देव, समंतभद्र आदि और घटनाएं हैं । देखना यह है कि ये सब जीव परम सम्यक् दृष्टि थे। उन्होंने जिनेन्द्र की आराधना-स्मरण किया था। तब देवता सेवा को आये थे। ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि इनकी आराधना की हो और कोई देवता सहायता को आया हो। तब इनकी आराधना का उपदेश क्यों ? जिनेन्द्र की आराधना पर ये स्वयं आये हैं, तो आयेंगे । यदि आपकी जिनेश आराधना सही पुष्कल होगी, तो अवश्य दौड़े आयेंगे। पर ये सब घटनाएं उन उन जीवों के पूण्योदय पर हैं। अन्यथा जिन के गर्भ-कल्याणक पर देवों ने पन्द्रह माह रतन वरसाये, वे भगवान् आदिनाथ आहार मात्र के लिए बारह माह भटकते रहे, किसी देवता के कान पर भनक भी नहीं पड़ी। अतः ये सब तर्क नहीं, कुतर्क हैं।
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पाठ में उन सब देवी देवताओं के नाम स्थापना आदि हैं, अत: जिनागम में इनका महत्वपूर्ण स्थान माना गया है । यह भी एक तर्क है। उत्तर यह है कि यह यथार्थ है कि पंचकल्याणक में इनका वर्णन प्रतिष्ठा पाठों में है। उसका हेतु उनका पूजन-अर्चन नहीं है, किन्तु भगवान् के इन कल्याणकों का कार्य सौधर्मेन्द्र तथा उनकी आज्ञा से अन्य देवी देवियों ने सम्पन्न किया है। अत: उस समय के पंचकल्याणकों का यह रूपक है, जो हम करते हैं।
हम भगवान् की मूर्ति बनाते हैं और मूर्ति में पंचकल्याणक की क्रिया का रूपक करते हैं । इसमें देवीदेवताओं के नाम आते हैं। सौधर्मेन्द्र ने प्रतिष्ठा की। अतः यज्ञकर्ता में सौधर्म इन्द्र की स्थापना की जाती है। सौधर्मेन्द्र ने देवी देवताओं को आज्ञा दी थी न कि उनकी पूजा की थी। तब यहाँ भी इन्द्र आज्ञा देवे, उसी का यह नियोग है। आज के प्रतिष्ठाचार्य उस स्थापित यज्ञकर्ता को सौधर्मेन्द्र स्थापित करके भी उसके द्वारा इन सब छोटेछोटे सौधर्मेन्द्र की आज्ञा मानने तथा उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े रहने वाले देवी देवताओं की पूजा कराते हैं । यह कहाँ तक उचित है, यह विचारणीय है । अतः पंचकल्याणक प्रतिष्ठापाठों में इनकी चर्चा कर इनकी पूजा-अर्चा का विधान भी शास्त्रों का विपरीत अर्थ करके मिथ्यात्व का खरा पोषण ही है।
पद्मावती-ज्वालामालिनी आदि देवियों का स्वरूप, उनकी आराधना आदि जो की जाती है, उसका बिधान भैरव पद्मावती कल्प और ज्वालामालिनी जैसी पूजा पुस्तकों में है। ये पुस्तके दि० जैन पुस्तकालय सूरत से छप चुकी हैं । पद्मावती कल्प वी० सं० २४७९ और २४९६ में दो बार और ज्वालामालिनी कल्प २४९२ में छपी है।
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