Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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श्रावक धर्मप्रदीप टीका : एक समीक्षा श्री राजेन्द्र आर० वी० जबलपुर (म०प्र०) श्रावक धर्म प्रदीप: एक परिचय
कर्नाटक में जनमे रामचंद्र ने आचार्य शान्तिसागर जी से क्षुल्लक एवं मुनिपद में दीक्षित होकर क्रमशः पार्श्वकीति और १०८ कुन्थुसागर नाम पाया । अपनी अध्ययनशीलता एवं ओजपूर्ण वाणी से आप आध्यात्मिक एवं धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त ही लोकप्रिय एवं आदर्श साधु बने । आपने अपनी चर्या के दौरान अनेक (लगभग ३०) ग्रन्थ लिखे। इनमें संस्कृत में लिखित श्रावक धर्मप्रदीप भी एक है। पं० कैलाशचंद्र जी शास्त्री के अनुसार, इस ग्रन्थ में श्रावकाचार का वर्णन जिनसेनाचार्य की पद्धति पर किया गया है जिसमें श्रावकों को पाक्षिक, नैतिक एवं साधक की कोटि में सर्वप्रथम वर्गीकृत किया गया है। इस ग्रन्थ में पांच अध्यायों के २११ श्लोकों के माध्यम से श्रावकों की तीनों कोटियों (पाक्षिक एक अध्याय, नैष्ठिक चार अध्याय) का वर्णन किया है। इसके श्लोकों में अनुष्टुप, इन्द्रबज्रा, उपजाति, और वसन्ततिलका छन्दों का प्रयोग किया गया है। भाषा अति सरल और प्रभावकारी है। इसमें कुछ पूर्वाचार्यों के समान सल्लेखना को १२ व्रतों में सम्मिलित नहीं किया गया है। बीसवीं सदी की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसमें कुछ नवीन बातें भी आई हैं । 'विश्व में सुख-शान्ति का कारण दुष्ट का निग्रह और सज्जन का संरक्षण है' स्पष्ट ही द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव का प्रतीक है। सूतक-चर्चा भी श्रावकाचार ग्रन्थों में तो नई ही है।
आचार्यश्री का और पंडित जी का कटनी से ही प्रगाढ़ परिचय रहा है । वे उनसे प्रभावित भी रहे हैं। उनके दर्शनार्थ १९४३ में पंडित जी इंदौर से बासवाड़ा गये। कुछ दिन रहने के बाद जब पंडित जी लौटते समय पुण्याशीर्वाद लेने गये, तब आचार्यश्री ने उन्हें 'श्रावक धर्मप्रदीप' की प्रति देते हुए उसकी हिन्दी व संस्कृत टीका हेतु आदेश दिया। पंडित जी ने इसे सहर्ष स्वीकार किया और यह भी सोचा कि इस कार्य से वे अपने पूज्य पिताजी के उस अपूरित आदेश का भी परोक्षतः पालन कर सकेंगे जो वे ढूंढारी भाषा की कठिनाई के कारण नहीं कर सके थे।
यह तो सुज्ञात नहीं है कि इस ग्रन्थ की संस्कृत और हिन्दी टीका करने में पंडित जी को कितमा समय लगा, पर ग्रन्थ का प्रथम संस्करण 'वर्णी ग्रन्थमाला' से संभवतः १९५५ में प्रकाशित हुआ था। सन् १९८० में इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित हुआ है। संस्कृत एवं हिन्दी टीका की विशेषतायें
ग्रन्थ के टीकाकार के संबंध में शास्त्री जी का यह मत शत-प्रतिशत सत्य है कि वे अपने समय के आदर्श विद्वान् हैं। उन्होंने अपनी टीकाओं के माध्यम से मूलग्रन्थ के महत्व को चौगुना कर दिया है। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी यह टीका स्वतंत्र ग्रन्थ के ही समकक्ष हो गई है। मूल ग्रन्थ के सूक्ष्म विवेचन का आधुनिक युग के परिप्रेक्ष्य में विस्तार इसकी विशेषता है। ग्रन्थ की संस्कृत टीका की भाषा अति सरल है और यह अ-संस्कृतज्ञ के लिये भी किंचित् प्रयास से बोधगम्य हो सकती है। 'टीका' की भाषा में प्रभावोत्पादक उपमा, उदाहरण, लोकोक्तियों आदि से जीवन्तता पाई जाती है। संस्कृत टीका का हिन्दी में भी अर्थ दिया गया है।
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