Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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९० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
| खण्ड
सप्त-व्यसन
श्रावकों को जुआ आदि सात व्यसन (बुरी आदतें) नहीं अपनाना चाहिये । ये व्यसन हिंसा (शिकार, मांस मधु), चोरी (स्तेन), ब्रह्मचर्य (वेश्या, परस्त्री) तथा परिग्रह (जुआ खेलना) पापों के रूपान्तर ही हैं । ये स्व-पर-अहितकारी हैं। टीकाकार ने इनके विषय में सुन्दर तर्कों का उपयोग किया है। आजकल शाकाहार-प्रचार के युग में मांसभक्षण के शास्त्रीय दोषों के साथ यदि कुछ नई खोजें भी समाहित होती, तो और भी अच्छा होता । वैज्ञानिक दष्टि से पेड़-पौधों या एकेन्द्रिय जीवों के मृत शरीर को अनेक निगोदिया, बेक्टीरिया अपघटित कर कार्बनचक्र को चलाने में सहायक होते हैं । परजीवी तंत्र सदैव मृत जीव शरीरों को अपना पोषक बनाते हैं। मांस में भी ऐसे ही जीव अपघटन करते रहते रहते हैं। इसीलिये यह पंचेन्द्रिय जन्य या अधिकेन्द्रिय जन्य होने से तो अभक्ष्य है ही, असंख्य एकेन्द्रियों का आश्रय होने से भी अभक्ष्य है।
इसी प्रकार, मद्यपान के बाह्य प्रभावों की शास्त्रीय चर्चा (चित्तविकृति, बुद्धिनाश, निर्लज्जता, स्वैराचार आदि) के साथ यहाँ भी नयी वैज्ञानिक खोजों का विवरण महत्वपूर्ण हो सकता था। इससे मद्य त्याग की अधिक प्रेरणा मिल सकती थी। मद्य किण्वन क्रिया से बनाया जाता है। इसमें असंख्य स्थावर एवं त्रसजीव भाग लेते हैं। इसके पीने से शरीर-तंत्र की अनेक जीवित कोशिकायें विकृत हो जाती हैं। चोरी करने के व्यसन के सम्बन्ध में अत्यन्त महत्वपूर्ण बात कही गई है कि जो लोग भाजी खरीदते समय तौल से ज्यादा चार पत्ते भाजी और रख लेते हैं, उनके दान का क्या महत्व माना जा सकता है ? ये सभी व्यसन मोह और मिथ्या दृष्टि के प्रतीक हैं। टीकाकार ने व्यसन के प्रकरण से ऊपर उठकर चोरी की व्यापक परिभाषा दी है। उसकी मान्यता है कि जिन कार्यों में पर-द्रव्यापहरण की भावना एवं तदनुकूल कृति होती है, वे सभी कार्य प्रत्यक्षतः चोरी न होते हए भी धार्मिक दृष्टि से चौर्यलक्षण में समाहित हैं । मिलावट, नाप-तौल में गड़बड़ी, राज-कर-अपवंचन, बिनाटिकिट यात्रा, आदि चौर कर्म ही हैं । इनके निमित्त सुरक्षात्मक प्रयत्न (झूठे बही खाते आदि) भी इसीके अन्तर्गत माने जाते हैं। यह व्यापक परिभाषा व्यापारप्रधान एवं सेवा-प्रधान श्रावकों के आचार के लिये महत्वपूर्ण हैं। इस विचारधारा के आधार पर कितने श्रावक अपने को निर्व्यसनी कह सकते हैं । जुआ खेलने के व्यसन को व्यापक अर्थ में लेते हुए टीकाकार का कथन है कि स्वास्थ्यरक्षा, ज्ञानवृद्धि, सदाचार आदि शुभ उद्देश्य से किये जाने वाले होड़ के कार्य दोषाधायक नहीं हैं। इसे परिग्रह का ही एक रूप मानना चाहिये।
पाँच पाप
अच्छे श्रावक को पाँच पापों से स्थूलरूप से बचना चाहिये। जो केवल त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करते हैं, वे अच्छे गृहस्थ माने जाते हैं क्योंकि वे उद्योगी, आरम्भी एवं विरोधी हिंसा को अनिवार्यरूप से परित्याग नहीं कर सकते । हाँ, वे पापोपहत वृत्तियाँ स्वीकार न करें, यह ध्यान में रहे। इन हिंसाओं की सामाजिक एवं राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में टीकाकार ने जो व्याख्या दी है, वह मननीय है। संकल्पी हिंसा और अन्य तीन हिंसाओं का अन्तर भी महत्वपूर्ण है । संकल्पी हिंसा की जाती है और अन्य हिंसायें हो जाती हैं । संकल्पी हिंसा के समान अन्य हिंसाओं से बचने का उपाय करते रहना श्रावक की शोभा है।
हिंसा के समान सत्य की संक्षिप्त चर्चा भी महत्वपूर्ण हुई है। धार्मिक दृष्टि से ज्यों का त्यों बोलना भी सत्य है और कहीं पर वह सत्य नहीं भी है। यह अनेकान्ती दृष्टिकोण स्व-पर कल्याण की दृष्टि से अपनाया जाना चाहिये। विपत्तिकर, कलहकर एवं भ्रान्तिकर वचन सत्य होने पर भी शास्त्रीय दृष्टि से निंद्य माने जाते हैं।
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