Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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सूझबूझ एवं वाक्चातुर्य के धनी पण्डित जी के कुछ शिक्षाप्रद संस्मरण ७९
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उन्होंने कहा, "हिन्दू रिषभदेव को अवतार मान कर पूजते हैं। हम उन्हें भगवान् मान कर पूजते हैं । वे राम को अवतार मान कर पूजते हैं, हम भी उन्हें सिद्ध मानकर पूजते हैं । पत्रिका के लेख में राम को सिद्ध मान कर हमने उन्हें पूज्य ही माना है, उनका कोई अनादर तो नहीं किया है। मोक्षगामी मान कर भी पूज्य ही माना है। इसमें क्या गाली दी? इस प्रकार रिषभ और राम में पूज्यता की दृष्टि से कोई अंतर नहीं है । फलतः जिसने भी रिषभ की मूर्ति खंडित की है, उसने राम की मूर्ति तो पहले ही खंडित कर ली। हम अपने णमोकार मंत्र में सिद्ध के रूप में राम को प्रतिदिन नमस्कार करते हैं । ऐसी स्थिति में क्या मूर्ति खंडन विवेकपूर्ण माना जा सकता है ?
श्री मगन लाल वागडी ने भी कहा कि उन्होंने वह लेख पढ़ा है जो मूर्ति-खंडन कांड की जड़ है। उसमें कोई भी अनुचित बात नहीं है । मैं कह सकता हूँ कि जैनों के साथ अन्याय हुआ।
जन सभा के बाद पंडित जी ने निर्णय लिया कि खंडित मूर्तियों को दूसरे दिन शोभायात्रा सहित नर्मदा में विजित किया जावे। इसके लिये निःशुल्क वसों की व्यवस्था की गई और विसर्जन हेतु लगभग ५००० जैनाजैन जनता एकत्र हई। इस अवसर परम० प्र० के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा० काटजू, श्री मिश्री लाल जी गंगवाल तथा जबलपुर संभाग के कमिश्नर भी मौजूद थे। विसर्जन समारोह शास्त्रोक्त विधि से गरिमामय वातावरण में संपन्न हुआ।
इस समारोह के अवसर पर यह आवाज भी आई कि इसके लिये मुहूर्त शोधना चाहिये । पंडित जी ने वाक्चातुर्य से कहा, "जन्म और विवाह के मुहूर्त देखे आते हैं । मरण का मुहूर्त नहीं देखा जाता। जब प्रतिष्ठित मूर्तियां खंडित हो गई, तो मुहूर्त का महत्व ही क्या रहा ?'
यह घटना पंडित जी की तत्काल बुद्धि एवं वाक्चातुर्य की अजीब मिसाल है।
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