Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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७२ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
बाबा जी ने उस समय तक भ्रमण करके पाई हुई दान की सम्पत्ति, व अपनी दी हुई सम्पत्ति समाज के सम्मुख रख दी। फिर दमोह की समाज ने उदासीन आश्रम की सहायता करने के लिए एक समिति का संगठन किया और उसके पदाधिकारी नियत करके कोषाध्यक्ष महाशय के पास उस सम्पत्ति को उदासीन आश्रम के खाते में जमा करा दिया।
आश्रम की आर्थिक सहायता हेतु बाबा जी जैन समाज की धन-कुबेर नगरी इन्दौर गये। किसी विशेष असवर पर वहाँ समाज एकत्रित की। इन्होंने सभा में अपने उद्गार प्रकट करने की इच्छा व्यक्त की, परंतु सरसेठ सा० ने इनकी साधारण वेशभूषा से इन्हें कोई चंदा मांगने वाला गरीब जानकर बोलने का अवसर नहीं दिया। उस समय सेठजी के पास ब्र. दरयाव सिंहजी सोधिया रहते थे। उन्होंने सेठजी को बाबा जी का परिचय कराया। तब सेठजी ने इन्हें बोलने का अवसर दिया।
त्यागी आश्रम की महती आवश्यकता सुनकर सेठजी को परम आनन्द हआ। तीनों ही भाइयों ने ग्यारह-ग्यारह हजार रुपया देकर इन्दौर में आश्रम खोलने के लिए बाबा जी से प्रार्थना की। बाबाजी को बहुत आनन्द हुआ और वे सेठजी की इच्छानुसार चार माह इन्दौर में आश्रम की स्थापना तथा उसके संचालन के लिए रहे। बाद में ब्र. पन्नालालजी गोधा को इन्दौर आश्रम का अधिष्ठाता बनवाकर बाबाजी कुंडलपुर वापिस आने लगे। सेठ सा० चाहते थे कि ये यहाँ ही रहें पर बाबाजी कुंडलपुर आना चाहते थे। सेठजी बोले "फिर तुम्हें यहाँ से क्या मिला?" बाबाजी ने कहा- "एक आश्रम चाहता था, सो मुझे यहाँ दूना लाभ मिला, दो आश्रम हो गये।" सेठ साहब को उनकी धर्मनिष्ठ निरीह-वृत्ति पर आश्चर्य हआ। बाबाजी कुंडलपूर वापिस आ गये।
कुछ समय पश्चात् कटनी में स० सिं० रतनचंदजी को शरीर में घोर वेदना हुई। उस समय इनके अग्रज स० सिं० कन्हैयालालजी ने इनसे ममतापूर्ण शब्दों में कहा-"भैया, साहस करो, भगवान् की भक्ति शीघ्र ही तुम्हारी इस वेदना को दूर करेगी। हमारा तुमसे इस अवसर पर यह आग्रह है कि बिना किसी प्रकार का संकोच किये, जितनी चाहो उतनी सम्पत्ति दान कर दो। 'अश्रुपात करते हुए अग्रज के इन ममता भरे वचनों को सुनकर रतनचंद बोले" "भैया, और भाइयों को भी बुला लो।" इसी समय भाई दरबारीलाल और परमानन्द भी वहाँ आ गये और विनम्र होकर बोले--"भैया, जो कुछ देने की इच्छा होवे, दे डालो। तुम्हारे दिये हुए इस दान से होने वाले पुण्य में हम भी तो भागीदार रहेगे।" बस फिर क्या था, रतनचंदजी ने मेरी साक्षी देते हए कहा'"जिस दिन आपने पच्चीस हजार रुपयों का रेहननामा लिखाया था, हमने कक्का से उसी दिन कहा था कि हमारी इच्छा है कि बड़े भैया यह रेहननामा विद्यादान में लिखा दें।" रतनचंदजी की यह बात सच थी, मैंने भी इसे ठीक कहा। इसे सुनकर उपस्थित तीनों बंधुओं ने कहा---' इस रकम को हम सब उसी समम से, भैया की इच्छानुसार, विद्यादान में देना स्वीकार करते हैं।"
कुछ समय पश्चात् रतनचंद जी स्वस्य हो गये। इनके स्वस्य हो जाने पर, इन सब भाइयों ने दान में दी हई पच्चीस हजार की रकम व इससे मिलने वाले ब्याज की कुल रकम का विधिवत् दान-पत्र लिख दिया। इसमें से आधी रकम से होने वाली आय जैन छात्रावास की सहायतार्थ, और शेष आधी रकम से होने वाली आय जगन्मोहनलाल को सदैव सहायतार्थ दी जाती रहे जिसे प्राप्तकर वे अपनी गृहस्थी के खर्च की चिन्ता से निश्चिन्त रहकर, ज्ञान प्रसार के कार्य में रत रहें। इस दानपत्र के माध्यम से सिंघई जी ने, छात्रावास के संस्थापक अनुज रतनचंद की मनोभावना की, और बाबाजी को दिये हुए वचन की, जगन्मोहन लाल के भरण-पोषण आदि के भार वहन की पूर्ति के अर्थ यह स्तुत्य कार्य किया ।
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