Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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मेरा जीवन वृत्त पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री
कटनी
मेरे पर-आजा श्री तुलसीदास चौधरी इन्द्राना (जबलपुर) के निवासी थे। किसी कारण वश कालान्तर में मझोली (जबलपुर) में आकर निवास किया। मेरे आजा का नाम था श्री भैरों चौधरी और पिता जी का नाम श्री गोकुल प्रसाद । मेरे मामा सिगरामपुर (संग्रामपुर) जिला दमोह के अधिवासी थे। वे तीन भाई थे।
मेरे पिता दो भाई थे। उनमें बड़े भाई के पुत्र चैतूलाल जी थे। उनकी दो बहनें थीं। छोटे के एकमात्र पुत्र मैं था और एक ही मेरी बहिन थी जो जबलपुर में सिंघई बटी लाल जी को ब्याही थी। मेरे बड़े चचेरे भाई की मात्र दो कन्याएं थीं। एक पेन्ड्रा, दूसरी डोंगरगढ़ में ब्याही गई। एक बार मझौली में प्लेग की बीमारी फैलने पर मेरे माता-पिता शहडोल गये। वहाँ मेरी चचेरी बड़ी बहिन ब्माही थी। मेरे बहनोई थे लाला जैनीलाल जी । बड़े धर्मज्ञ थे। मेरा जन्म शहडोल में सावन सुदी १२ वि. सं. १९५८ को हुआ था। मझौली में मैं कक्षा दो तक पढ़ा था। यद्यपि मझौली के आस-पास पिता की जमींदारी थी, पर पिता जी की अदालती लत के कारण वह सब समाप्त हो गई और वे वहाँ से चलकर सिवनी आये। सिवनी वाले पन्ना लाल टेक चंद जी की आढ़त दुकान पिंडरई में थी, वहाँ उस दुकान पर मुनीम हो गये। मेरे चचेरे भाई और छोटे मामा भी उसी दुकान पर मुनीमी का काम करने लगे।
वि. सं. १९६६ में श्री सम्मेद शिखर जी पर सिवनी निवासी श्री पूरन शाह जी द्वारा निर्माणित तेरह पंथी कोठी के जिन मंदिर की ऐतिहासिक गजरथ पंच-कल्याणक प्रतिष्ठा हुई। शिखर में प्रतिष्ठा के साथ गजरथ चलना प्रथम घटना थी, कारण यह प्रथा मात्र बुन्देलखंड में ही उस समय चालू थी। करीब १०-१५ वर्ष से अन्य प्रान्तों में भी गजरथ कहीं कहीं हुए हैं। शिखर जी में लाखों की भीड़ थी। बुन्देलखंड में यह भी एक नियम था कि ऐसी प्रतिष्ठा में समागत धर्म-बन्धुओं की तीन दिन भोजन व्यवस्था (पक्की) की जाती थी। मेरे पिता जी को श्री पूरन शाह जी ने इन तीन ज्योनारों के सारे इन्तजाम का काम सौंपा । इस कारण करीब एक माह उनको यहाँ रहना पड़ा । मेरी माता जी भी वहीं आकर साथ रही और मैं भी। वहाँ के दूषित जल का प्रभाव मेरी माता जी पर पड़ा और वहाँ से लौटने पर दिवंगत (थोड़े ही दिनों में) हो गई।
पिंडरई में पं० पल्टूराम जी पुजारी थे । स्वाध्यायी ज्ञानी पुरुष थे। उनके पास मेरी धर्म शिक्षा हुई। प्राथमिक शाला में कक्षा ४ पास की। मेरे पिता भी पं० पल्टूराम जी के सहवास से स्वाध्याय प्रेमी बने । कालान्तर में उन्होंने व्रत लेकर ब्रह्मचारी जीवन बिताया। त्रिकाल सामायिक उनका व्रत बन गया। दुकान में मालिक को पत्र दिया कि हम अब सर्विस न करेंगे, अन्य व्यवस्था बनावें। दुकान मालिक का पत्र था कि आप सहयोगी
रयों से ही काम करावें । मात्र दो घंटा दुकान आकर उनका काम देख कर चिट्ठी-पत्री का जवाब दे। आपका वेतन (उस समय ५० रू० माह था) आपको दिया जायेगा। इसे स्वीकार करने पर भी एक दिन दोपहर को सामायिक में अलसी की सौदा का ध्यान आ गया कि इसे बेच देना चाहिए अन्यथा बहत घाटा लगेगा। आकर सौदा बेच दिया और सर्विस अंतिम रूप से छोड़ दी व लिख दिया कि यह परिग्रह और चिंता हमारे धर्म ध्यान में बाधक है, अतः मैं न कर सकंगा और काम सब शेष मुनीमों को सौप दिया।
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