Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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४८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड कवि ने अपने ग्रन्थ में छप्पय, चौपाई, दोहा, गीतिका आदि सभी छन्दों का उपयोग किया है। इससे कवि के छन्दशास्त्र और काव्यगत सभी विशेषताओं की विशेषज्ञता का पता चलता है। यह ग्रन्थ जैन सिद्धान्त के मर्म से भरा-पूरा है । इसमें महावीर का सम्पूर्ण चरित्र बड़ी सुन्दरता के साथ लिखा गया है । कविवर पण्डित जवाहर लाल जी
छतरपुर में जन्मे जवाहर लाल जी ऐसे कवियों में से हैं जो महत्वपूर्ण अवसरों पर प्रायः स्मरण किये जाते हैं । जैन सम्प्रदाय के संयम और साधना के पर्व दश लक्षण के अन्तिम दिन हम अपने कवि का स्मरण उनके द्वारा रचित ढारों के माध्यम से ( जो कलशाभिषेक के समय की जाती है, ) करते हैं। छतरपुर नगर में हर दश लक्षण की चतुर्दशी को कलशाभिषेक के समय आज भी कविवर पण्डित जवाहर लाल जी द्वारा रचित ढारों का ही वाचन किया जाता है।
जवाहर लाल जी के पिता का नाम मोतीलाल था और ये भारूमुरी भारिल्ल गोत्र के थे। इनके मामा अमरावती में रहते थे। वि० सं० १८९१ सन् १८३४ के लगभग वे छतरपुर छोड़कर अमरावती चले गये ।
उन्होंने पंचकल्याणक विधान, सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र पूजा, मुक्तागिरि पूजा, अन्तरिक्ष प्रभु अन्तरजामी आदि की रचना की। आप की कविता-शक्ति अनोखी थी। जैन सिद्धान्त का गहन अध्ययन था। आपकी रचनाओं में अध्यात्म ही अध्यात्म भरा है। कवि की पदावली में ३१ सरस पद संकलित हैं। ये पद संसार की अ तथा मनुष्य जीवन की सार्थकता की ओर संकेत करने वाले हैं ।
कवि का दृष्टिकोण संकुचित नहीं है। उन्होंने अपने पदों में प्राणीमात्र को भी सम्बोधित कर सही मार्ग दिखाया है । कवि ने कहा है कि वह संसार में अकेला ही आया है, अकेला ही जावेगा, कोई साथी नहीं है। इससे भव संसार से पार उतारने के लिये भगवान् से प्रीति कर। ऐसे अनेक पद हैं जिनके माध्यम से कवि ने प्राणी को अपने दुर्लभ मानव जीवन का सदुपयोग कर शुभगति प्राप्त करने की सलाह दी है। कवि ने सोरठा, लावनी, दोहा, कहरवा आदि का प्रयोग किया है। कवि की रचनायें जैन साहित्य में श्रेष्ठ स्थान रखती हैं। इनका व्यक्तिगत जीवन शोध का विषय है। पं० परमानन्द जी शास्त्री ( १९०८-१९७९)
जैन इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति के अधिकारी विद्वानों की श्रेणी में पं० परमानन्द जी शास्त्री का नाम पहले लिया जाता है। पं० परमानन्द जी का जन्म छतरपुर जिले में रेशन्दीगिरि (नैनागिरि) के निकट ग्राम निवार में श्रावण कृष्ण ४ वि० सं० १९६५ (सन् १९०८) को हुआ। आपके पिता स० सिंधई श्री दरयाव सिंधई एवं माता मूलाबाई थीं। ग्राम में ही प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त श्री गणेश वर्णी दि० जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर से न्यायतीर्थ, न्यायशास्त्री की शिक्षा ग्रहण की । बुन्देलखण्ड के आध्यात्मिक सन्त पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी से जैन न्याय के प्रमेय कमल मार्तण्ड, अष्ट सहस्री जैसे अत्यन्त कठिन ग्रंथों का अध्ययन किया। खतौली, सलावा और शाहपुर के जैन विद्यालयों में अध्यापन कार्य करने के पश्चात् १९३६ में श्री वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट सरसावा में इतिहासविद् जुगल किशोर जी मुख्तार के सानिध्य में पहुँच गये । आपकी रुचि निरन्तर प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन में रहती थी। इससे सौभाग्य से आपको अपनी रुचि के अनुसार ग्रंथों के आलोड़न, अध्ययन
और प्रकाशन स्थल वीर सेवा मन्दिर जैसा स्थान मिला जहां आपने जैन साहित्य-संस्कृति की जो महान् सेवा की है, वह जैन साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित है।
पंडित जी पत्रकारिता में अग्रणी विद्वान् रहे हैं। आपने अनेक महत्वपूर्ण, खोजपूर्ण शोध निबन्धों को लिखा है। प्राचीन विद्वानों की अप्रकाशित महत्वपूर्ण रचनाओं की खोज की और उनका जीवन परिचय एवं उनकी
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