Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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४० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
उपेक्षित बनाया। फिर भी नये वर्ग ने जैन धर्म और संस्कृति का नाम आगे बढ़ाया है। अपने अनुसन्धानों द्वारा उन्होंने जैन विद्याओं के अनेक ऐसे पक्षों पर प्रकाश डाला है जो इसके पूर्व अनुद्घाटित थे। उन्होंने अपने पाश्चात्यपद्धतिगत एवं तुलनात्मक अध्ययनों द्वारा विश्व में जैन विद्याओं को गौरव दिया है। आज यही पीढ़ी विश्व के अनेक भागों में होनेवाले राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनो में जैन विद्याओं के प्रचार-प्रसार के अवसर पा रही है। इनके योगदान को नगण्य नहीं माना जा सकता।
इस युग के उपरोक्त तीनों वर्गों के पण्डित सामान्यतः धर्म-शास्त्रज्ञ एवं मुख्यतः विद्याव्यसनी रहे हैं। इन्होंने धार्मिक एवं सामाजिक क्रियाओं के प्रवर्तन का नेतृत्व नहीं किया। यह नेतृत्व भी सामाजिकता के लिये आवश्यक है। समाज में सदैव प्रतिष्ठापाठ, उद्यापन, विधान, पञ्चकल्याणक आदि प्रवृत्तियां चलती रहती हैं। इनका सञ्चालन कौन करे ? पहले यह कार्य भट्रारक पन्थ में दीक्षित लोग करते थे। इनके अभाव में पण्डितों का एक मध्यम वर्ग भी बीसवीं सदी में उदित हुआ। इस वर्ग में विद्याव्यसनी कम, क्रियाकांडज्ञानी अधिक है। यह क्षेत्र अब आर्थिक दृष्टि से भी आकर्षक बन गया है। इस वर्ग की संख्या भी अब बढ़ने लगी है। जयपुर एवं शास्त्रिपरिषद के शिविर भी इस क्षेत्र के लिये प्रशिक्षण देने लगे हैं। इस तरह ज्ञानकांडी पण्डितों की परम्परा की तुलना में क्रियाकांडज्ञों की संख्या कुछ बढ़ रही है। इसे शुभ लक्षण नहीं माना जा सकता। इससे समाज में अनेक प्रकार के ऐसे वातावरण पनपने लगे है जो धार्मिक और नैतिक सिद्धान्तों से विचलित होने की ओर अग्रसर करते हैं ।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि साधु और पण्डित परम्परा ने जैन संस्कृति एवं साहित्य के संरक्षण, प्रवर्तन एवं संवर्धन का काम किया है। इस समय ये परम्परायें शास्त्रीय मान्यताओं के अनुरूप वातावरण एवं क्षमताओं को क्षोणता से अपना अस्तित्व शक्तिशाली रूप से प्रकट करने में जटिलता का अनुभव कर रही है। दिगम्बर परम्परा के पूज्य साधु और आचार्य आचार-प्रवण तो होते है, पर इनमें विचार और अध्ययन-मननशीलता विरल है। पंडितों की स्थिति भी ऊपर बताई जा चुकी है। यह सचमुच ही सक्रिय एवं गहन चिन्तन का प्रश्न है कि ऐसी स्थिति में हम जैन संस्कृति की रिमा को कैसे अभिवधित कर सकेंगे? इसी प्रश्न का समाधान खोजने लगभग आठ वर्ष पूर्व दिल्ली में 'जैन पंडित परम्परा : भूत, वर्तमान और भविष्य' पर एक गोष्ठी आयोजित की गई थी। उसमें विद्वान् वक्ताओं से पंडितों के भविष्य पर कुछ करणीय सुझावों को आशा थो पर मुझे लगता है कि डॉ० दयानन्द भार्गव का निम्न कथन वस्तुस्थिति को स्पष्ट करता है:
"पण्डित भाव साधु एवं भावयज्ञ का प्रतीक है। इस प्रतीक के भूतकाल की चर्चा सभी वक्ताओं ने की है, पर भविष्य की किसी ने चर्चा ही नहीं की। क्या यह परम्परा भविष्य में नष्ट होनेवाली है ? पण्डित को ज्ञान-आचार वृद्ध होना चाहिए और समाज को उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहिए।"
आज समाज-आश्रित या समाज अनाश्रित विद्वान् को भविष्य की चिन्ता ही नहीं दिखती, सम्भवतः उसे वर्तमान ही अधिक महत्वपूर्ण दिखता है । दूरदर्शीपन का युग समाप्त हो गया लगता है। इस परम्परा के क्षोण होते जाने का अनुभव सभी कर रहे हैं। इसका मूल कारण यह है कि लक्ष्मीवन्दन के इस युग में सरस्वती पुत्रों को, समाज भौतिक तथा मानसिक दृष्टि से समुचित पोषण नहीं प्रदान करता। इसकी दशा 'जैन सन्देश' के ३० जुलाई ८७ के अंक के एक समाचार से अनुमान की जा सकती है जहाँ एक पण्डित को पिछले ४० वर्षों से ७३ = ०० रुपये मासिक वेतन दिया जा रहा है। विद्वत् परिषद् के ३०० = ०० रु० मासिक के न्यूनतम वेतन के प्रस्ताव की सामाजिक मान्यता का यह एक अच्छा उदाहरण है। वर्णी स्मृति ग्रन्थ १९७४ में शास्त्री ने पण्डित परम्परा की क्षीणता के पांच कारण बताये हैं। समाज-आश्रित बहुसंख्यक पण्डितों की यही नियति रही है । इसके निम्न परिणाम सामने आते रहे :
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