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अच्चान दीक्षित-अच्युतशतक
अठारहवीं शताब्दी में बलदेव विद्याभूषण ने पहले-पहल अच्चान दीक्षित-प्रसिद्ध आलंकारिक, वैयाकरण एवं दार्शनिक अचिन्त्य भेदाभेद वाद के अनुसार ब्रह्मसूत्र पर गोविन्द- अप्पय्य दीक्षित के लघु भ्राता । इनके पितामह आचार्य भाग्य जयपुर (राजस्थान) में लिखा । रूप, सनातन आदि दीक्षित एवं पिता रङ्गराजाब्वरी थे। आचार्यों के ग्रन्थों में भक्तिवाद की व्याख्या और वैष्णव अच्युत-(१) विभिण्डुकियों द्वारा परिचालित सत्र में इन्होंने साधना की पर्यालोचना की गयी है। फिर भी जीव गोस्वामी
प्रतिहर्ता का काम किया था, जिसका वर्णन 'जैमिनीय
ब्राह्मण' में है । (२) विष्णु। के ग्रन्थ में अचिन्त्य भेदाभेदवाद की स्थापना की चेष्टा
अच्युत कृष्णानन्द तीर्थ-अप्पय्य दीक्षित कृत 'सिद्धान्तलेश' हई है। बलदेव विद्याभूषण के ग्रन्थ में ही चैतन्य का
के टीकाकार। इन्होंने छायाबल निवासी स्वयंप्रकाशानन्द दार्शनिक मत स्पष्ट रूप में पाया जाता है।
मरस्वती से विद्या प्राप्त की थी। ये काबेरी तीरवर्ती इस मत के अनुसार हरि अथवा भगवान् परम तत्व अथवा अन्तिम सत् है । वे ही ईश्वर हैं। हरि की अङ्ग
नीलकण्ठेश्वर नामक स्थान में रहते थे और भगवान् कृष्ण
के भक्त थे। इनके ग्रन्थों में कृष्णभक्ति की ओर इनकी कान्ति ही ब्रह्म है। उसका एक अंश मात्र परमात्मा है
यथेष्ट अभिरुचि मिलती है । "सिद्धान्तलेश' की टीका का जो विश्व में अन्तर्यामी रूप से व्याप्त है। हरि में षट्
नाम 'कृष्णालङ्कार' है, जिसमें इन्हें अद्भत सफलता प्राप्त ऐश्वर्यों का ऐक्य है, वे हैं-(१) पूर्ण श्री, (२) पूर्ण ऐश्वर्य,
हुई है। विद्वान् होने के साथ ही ये अत्यन्त विनयशील (३) पूर्ण वीर्य, (४) पूर्ण यश, (५) पूर्ण ज्ञान और (६) पूर्ण
भी थे। कृष्णालङ्कार के आरम्भ में इन्होंने लिखा है : वैराग्य । इनमें पूर्ण श्री की प्रधानता है; शेष गौण हैं।
आचार्यचरणद्वन्द्व-स्मृतिलेखकरूपिणम् । राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति में हरि का पूर्ण प्राकटय है।
मां कृत्वा कुरुते व्याख्यां नाहमत्र प्रभुर्यतः ।। राधा-कृष्ण में प्रेम और भक्ति का अनिवार्य बन्धन है।
| गुरुदेव के चरणों की स्मृति ही मुझे लेखक बनाकर यह हरि की अचिन्त्य शक्तियों में तीन प्रमुख हैं-(१)
व्याख्या करा रही है, क्योंकि मुझमें यह कार्य करने की स्वरूप शक्ति, (२) तटस्थ शक्ति तथा (३) माया शक्ति ।
सामर्थ्य नहीं है। स्वरूप शक्ति को चित् शक्ति अथवा अन्तरङ्गा शक्ति भी
इससे इनकी गुरुभक्ति और निरभिमानिता सुस्पष्ट है। कहते हैं। यह त्रिविध रूपों में व्यक्त होती है-(१)
कृष्णालंकार के सिवा इन्होंने शाङ्करभाष्य के ऊपर संधिनी, (१) संवित तथा (३) हादिनी । संधिनी शक्ति
'वनमाला' नामक टीका भी लिखी है। इससे भी इनकी के आधार पर हरि स्वयं सत्ता ग्रहण करते हैं तथा दूसरों
कृष्णभक्ति का परिचय मिलता है। को सत्ता प्रदान कर उनमें व्याप्त रहते हैं। संवित् शक्ति
अच्युतपक्षाचार्य-ये अद्वैतमत के संन्यासी एवं मध्वाचार्य से हरि अपने को जानते तथा अन्य को ज्ञान प्रदान करते
के दीक्षागुरु थे। मध्वाचार्य ने ग्यारह वर्ष की अवस्था में हैं । ह्लादिनी शक्ति से वे स्वयं आनन्दित होकर दूसरों को
ही सनककुलोद्भव अच्युतपक्षाचार्य (नामान्तर शुद्धानन्द) आनन्दित करते हैं। तटस्थ शक्ति को जीवशक्ति भी
से दीक्षा ली थी। संन्यास लेकर इन्होंने गुरु के पास कहते हैं। इसके द्वारा परिच्छिन्न स्वभाव वाले अणुरूप
वेदान्त पढ़ना आरम्भ किया, किन्तु गुरु की व्याख्या से जीवों का प्रादुर्भाव होता है। हरि की माया शक्ति से
इन्हें संतोष न होता था और उनके साथ ये प्रतिवाद करने दृश्य जगत् और प्रकृति का उद्भव होता है। इन तीन
लगते थे । कहते हैं कि मध्वाचार्य के प्रभाव से इनके गुरु शक्तियों के समवाय को परा शक्ति कहते हैं।
अच्यतपक्षाचार्य भी बाद में द्वैतवादी वैष्णव हो गये। जीवों के अज्ञान और अविद्या का कारण माया शक्ति अच्यतव्रत-पौष कृष्णा प्रतिपदा को यह व्रत किया जाता है। इसी के द्वारा जीव ईश्वर से अपना सम्बन्ध भूलकर है। तिल तथा धृत के होम द्वारा अच्युतपूजा होती है। संसार के बन्धन में पड़ जाता है । हरि से जीव का पुनः इस दिन 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र द्वारा तीस सम्बन्ध स्थापन ही मुक्ति है। मुक्ति का साधन हरिभक्ति सपत्नीक ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। दे० अहल्याहै। भक्ति हरि की संवित् तथा ह्लादिनी शक्ति के मिश्रण का० धे० (पत्रात्मक), पृ० २३० । से उत्पन्न होती है। ये दोनों शक्तियाँ भगवद्पा है। अच्युतशतक-एक स्तोत्रग्रन्थ । इसके रचयिता वेदान्ताचार्य अतः भक्ति भी भगवत्स्वरूपिणी ही है ।
वेङ्कटनाथ थे। रचनाकाल लगभग सं० १३५० विक्रमीय है।
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