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अङ्गिरस्-अचिन्त्य भेदाभेद
(२) यदि मंगलवार को चतुर्थों या चतुर्दशी पड़े तो वह मन्दिर है । मन्दिर तक जाने के लिए पुल बना है। उत्तर एकशत सूर्यग्रहणों की अपेक्षा अधिक पुण्य तथा फलप्रदा- भारत में यह कार्तिकेय का एक ही मन्दिर है। कहा यिनी होती है। दे० गदाधर प०, कालसार भाग, ६१०। जाता है कि एक बार परस्पर श्रेष्ठता के बारे में गणेशजी अङ्गिरस्-आङ्गिरसों का उद्भव ऋग्वेद में अर्द्ध पौराणिक तथा कार्तिकेय में विवाद हो गया। भगवान् शङ्कर ने कुल के रूप में दृष्टिगोचर होता है। उन परिच्छेदों को, पृथ्वी-प्रदक्षिणा करके निर्णय कर लेने को कहा। गणेशजी जो अङ्गिरस् को एक कुल का पूर्वज बतलाते हैं, ऐतिहासिक ने माता-पिता की परिक्रमा कर ली और वे विजयी मान मूल्य नहीं दिया जा सकता । परवर्ती काल में आङ्गिरसों के लिये गये । पृथ्वी-परिक्रमा को निकले कार्तिकेय को मार्ग में निश्चित ही परिवार थे, जिनका याज्ञिक क्रियाविधियों ही यह समाचार मिला। यात्रा स्थगित करके वे वहीं (अयन, द्विरात्र आदि) में उद्धरण प्राप्त होता है ।
अचल रूप से स्थित हो गये । यहाँ वसुओं तथा सिद्ध गणों अङ्गिरा-अथर्ववेद के रचयिता अथर्वा ऋषि अङ्गिरा एवं भृगु ने यज्ञ किया था। गुरु नानकदेव ने भी यहाँ कुछ काल तक के वंशज माने जाते हैं । अङ्गिरा के वंशवालों को जो मन्त्र साधना की थी। कार्तिक शुक्ला नवमी-दशमी को यहाँ मेला मिले उनके संग्रह का नाम 'अथर्वाङ्गिरस' पड़ा। भृगु के वंशवालों को जो मन्त्र मिले उनके संग्रह का नाम 'भग्वा- अचिन्त्य भेदाभेद-अठारहवीं शती के आरम्भ में बलदेव ङ्गिरस' एवं दोनों संग्रहों की संहिता का संयुक्त नाम विद्याभूषण ने चैतन्य सम्प्रदाय के लिए ब्रह्मसूत्रों पर 'गोविन्दअथर्ववेद हुआ। पुराणों के अनुसार यह मुनिविशेष का भाष्य' लिखा, जिसमें 'अचिन्त्य भेदाभेद' मत (दर्शन) का नाम है जो ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए हैं। इनकी पत्नी दृष्टिकोण रखा गया है। इसमें प्रतिपादन किया गया है कि कर्दम मुनि की कन्या श्रद्धा और पुत्र (१) उतथ्य तथा । ब्रह्म एवं आत्मा का सम्बन्ध अन्तिम विश्लेषण में अचिन्त्य (२) बृहस्पति; कन्याएँ (१) सिनीवाली, (२) कुहू, है। दोनों को भिन्न और अभिन्न दोनों कहा जा सकता है। (३) राका और (४) अनुमति हुई।
इसके अनुसार ईश्वर शक्तिमान् तथा जीव-जगत् उसकी शक्ति अङ्गिरावत-कृष्ण पक्ष की दशमी को एक वर्षपर्यन्त दस हैं। दोनों में भेद अथवा अभेद मानना तर्क की दृष्टि से देवों का पूजन 'अङ्गिराव्रत' कहलाता है। दे० विष्णुधर्म० असंगत अथवा व्याघातक है। शक्तिमान और शक्ति दोनों पु०, ३. ११७.१-३।
ही अचिन्त्य हैं । अतः उनका सम्बन्ध भी अचिन्त्य है। अचल-ईश्वर का एक विशेषण ।
___ इस सिद्धान्त का दूसरा पर्याय चैतन्यमत है । इसे गौडीय न स्वरूपान् न सामर्थ्यान् नच ज्ञानादिकाद् गुणात् । वैष्णव दर्शन भी कहते हैं। चैतन्य महाप्रभु इस सम्प्रदाय चलनं विद्यते यस्येत्यचल: कीर्तिताऽच्युतः ।। के प्रवर्तक होने के साथ सम्प्रदाय के उपास्य देव भी
[ जिसका स्वरूप, सामर्थ्य और ज्ञानादि गण से चलन हैं । इस सम्प्रदाय का विश्वास है कि चैतन्य भगवान् नहीं होता उसे अचल अर्थात् अच्युत (विष्णु) कहा। श्री कृष्ण के प्रेमावतार हैं । चैतन्य वल्लभाचार्य के समसामगया है । ]
यिक थे और उनसे मिले भी थे। इनका जन्म नवद्वीप . अचला सप्तमी--माघ शुक्ला सप्तमी । इस दिन सूर्यपूजन होता
(वंगदेश) में सं० १५४२ विक्रम में और शरीरत्याग सं० है । इसकी विधि इस प्रकार है : व्रत करनेवाला षष्ठी को १५९० विक्रम में प्रायः ४८ वर्ष की अवस्था में हुआ था। एक समय भोजन करता है, सप्तमी को उपवास करता चैतन्य ने जिस मत का प्रचार किया उस पर कोई ग्रन्थ है और रात्रि के उपरान्त खड़े होकर सिर पर दीपक रखे स्वयं नहीं लिखा और न उनके सहकारी अद्वैत एवं नित्याहुए सूर्य को अर्घ्य देता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, नन्द ने ही कोई ग्रन्थ लिखा। उनके शिष्य रूप एवं ६४३-६४८।
सनातन गोस्वामी के कुछ ग्रन्थ मिलते हैं। उनके बाद अचलेश्वर-अमृतसर-पठानकोट रेलमार्ग में बटाला स्टेशन जीव गोस्वामी दार्शनिक क्षेत्र में उतरे। इन्हीं तीन से चार मील पर यह स्थान है । मन्दिर के समीप सुविस्तृत आचार्यों ने अचिन्य भेदाभेद मत का वर्णन किया है । सरोवर है। यहाँ मुख्य मन्दिर में शिव तथा स्वामी कार्तिकेय परन्तु इन्होंने भी न तो वेदान्तसूत्र का कोई भाष्य लिखा एवं पार्वतीदेवी की मूर्तियाँ हैं । सरोवर के मध्य में भी शिव- और न वेदान्त के किसी प्रकरण ग्रन्थ की रचना की।
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