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अगोचरी-अघोरघण्ट
अगोचरी--हठयोग की एक मद्रा । 'गोरखबानी' की अष्ट
दक्षहस्ते च तन्मन्त्री पापरूपं विचिन्त्य च । मुद्राओं में इसकी गणना है :
परतो बज्रपाषाणे निःक्षिपेद् अस्त्रमुच्चरन् ।। करण मध्ये अगोचरी मुद्रा सबद कुमबद ले उतपनी ।
(तन्त्रसार) सबद कुसबद ममा कृतवा मुद्रा तौ भई अगोचरी ।। | छः अङ्गन्याम करके बायें हाथ में जल लेकर दक्षिण
इस मुद्रा का अधिष्ठान कान माना जाता है । इसके हाथ से सम्पट करे । शिव, वायु, जल, पृथ्वी और अग्निद्वारा बाहरी शब्दों से कान को हटाकर अन्तःकरण के बीजों के द्वारा तीन बार फिर से अभिमन्त्रित करके और शब्दों की ओर लगाने का अभ्यास किया जाता है। वास्तव सात वार तत्त्व मुद्रा से मूलमन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके में गोचर (इन्द्रिय-विषय) से प्रत्याहार करके आत्मनिष्ट उस जल को सिर पर छोड़े और शेष जल को दक्षिण हाथ होने का नाम ही अगोचरी मुद्रा है।
में रखकर इडा नाड़ी के द्वारा संचित पाप को शरीर के अग्रदास स्वामी-रामोपासक वैष्णव सन्त कवि । नाभाजी भीतर धोकर काले वर्ण वाले उस जल को दक्षिण नाड़ी (नारायणदास), जो रामानन्दी वैष्णव थे, अग्रदास के ही से विरेचन करे । दक्षिण हाथ में उस पापरूप जल को शिष्य थे एवं इन्हीं के कहने से नाभाजी ने 'भक्तमाल' साधक विचार कर मन्त्ररूप अस्त्र का उच्चारण करते हए की रचना की।
सामने के पत्थर पर गिरा दे।। गलता (जयपुर, राजस्थान) की प्रसिद्ध गद्दी के ये ।
__ अघमर्षणतीर्थ-मध्य प्रदेश, सतना की रघुराजनगर तहसील अधिष्ठाता थे। इनका जीवन-काल सं० १६३२ वि० के
के अमुवा ग्राम में धार, कुण्डी तथा बेधक ये तीन स्थान लगभग है । स्वामी रामानन्द के शिष्य स्वामी अनन्तानन्द
पास-पास हैं । तीनों मिलाकर 'अभरखन' (अघमर्षण) कहे और स्वामी अनन्तानन्द के शिष्य कृष्णदास पयहारी थे।
जाते हैं । धार में सिद्धेश्वर महादेव का मन्दिर, कुण्डी में ये वल्लभाचार्य के शिष्य और अष्टछाप के कवि कृष्णदास
तीर्थकुण्ड और बेधक में प्रजापति की यज्ञवेदी है। इन अधिकारी से भिन्न और उनके पूर्ववत्ती थे। इनके
तीन स्थानों की यात्रा पापनाशक मानी जाती है । शिष्य स्वामी अग्रदास थे। ये धार्मिक कवि थे, इनकी
अघोर---शिव का एक पर्याय । इसका शाब्दिक अर्थ है निम्नांकित रचनाएँ पायी जाती हैं :
न+ घोर (भयानक नहीं सुन्दर)। श्वेताश्वतर उपनिषद् (१) हितोपदेश उपखाणां बाधनी, (२) ध्यानमञ्जरी,
में शिव का 'अघोर' विशेषण मिलता है : (३) रामध्यानमञ्जरी और (४) कुंडलिया।
या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा पापकाशिनी ।' । अघमर्षण-सन्ध्योपासन के मध्य एक विशेष प्रकार की परन्तु कालान्तर में शिव के इस रूप की उपासना के क्रिया। इसका अर्थ है 'सब पापों का नाश करनेवाला जाप ।' अन्तर्गत बीभत्स एवं धृणात्मक आचरण प्रचलित हो गया । उत्पन्न पाप को नाश करने के लिए, जैसे यज्ञों के अङ्गभूत इस रूप के उपासकों का एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय अघोर पंथ अवभृथ-स्नानमन्त्र 'द्रुपदादिव' आदि है वैसे ही वैदिक कहलाता है। सन्ध्या के अन्तर्गत मन्त्र के द्वारा शाघ गय जल का फकना अघोरघण्ट-एक कापालिक संन्यासी । आठवीं शताब्दी के पापनाशक क्रिया अघमर्षण है। तान्त्रिक मन्ध्या में भी
प्रथम चरण में भवभूति द्वारा रचित 'मालतीमाधव' इसका विधान है :
नाटक का अघोरघण्ट एक मुख्य पात्र है और राजधानी में षडङ्गन्यासमाचर्य वामहस्ते जलं ततः । देवी चामुण्डा के पुजारी का काम करता है। वह आन्ध्र गृहीत्वा दक्षिणेनैव संपुटं कारयेद् बुधः ।। प्रदेश के एक बड़े शैव क्षेत्र श्रीशैल से सम्बन्धित है। शिव-वायु-जल-पृथ्वी-वह्नि-वीजैस्त्रिधा पुनः । कपालकुण्डला संन्यासिनी देवी चामुण्डा की उपासिका अभिमन्त्र्य च मूलेन सप्तधा तत्त्वमुद्र या ।। एवं अघोरघण्ट की शिष्या है। दोनों योग के अभ्यास निःक्षिपेत् तज्जलं मूनि शेष दक्षे निधाय च । द्वारा आश्चर्यजनक शक्ति अजित करते हैं । उनके विश्वास इडयाकृष्य देहान्तःक्षालितं पापसञ्चयम् । शाक्त विचारों से भरे हैं। नरमेध यज्ञ उनकी क्रियाओं में कृष्णवर्ण तदुदकं दक्षनाड्या विरेचयेत् ।। से एक है। अघोरघण्ट नाटक को नायिका मालती को
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