________________
१८
सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना अवान्तर-कथाओं और घटना-वैविध्य की अधिकता होती है, अलौकिक और अप्राकृत तत्वों का अधिक उपयोग हुआ रहता है, कथा के मध्य कथा कहने और संवाद रूप में कथा को उपस्थित करने की प्रवृत्ति होती है, साथ ही उपदेश देना या किसी मत विशेष का प्रचार करना उद्देश्य होता है । पुराणों के सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित–पाँच विषय होते हैं। पौराणिक शैली के महाकाव्यों में इनमें से एकाधिक विषय ग्रहण किये जाते हैं। पुराणों की भाँति उनमें भी कथा कहना लक्ष्य होता है तथा उनकी शैली सहज एवं सरल होती है।
पौराणिक शैली के महाकाव्य संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों भाषाओं में निबद्ध हुए हैंसंस्कृत पौराणिक महाकाव्य
संस्कृत में पौराणिक शैली के महाकाव्य दसवीं शती के अनन्तर विशेष रूप से मिलते हैं । दसवीं शती के पूर्व आठवीं शती में जिनसेन ने आदिपुराण और गुणभद्र ने उत्तरपुराण की रचना की थी और जटासिंह नन्दि ने वराङ्गचरित में ३१ सर्गों में वराङ्ग की जैन पौराणिक कथा लिखी थी । ग्यारहवीं शती में कश्मीर के क्षेमेन्द्र ने रामायणमञ्जरी, भारतमञ्जरी और दशावतारचरित की रचना की थी। इन तीनों रचनाओं में रामायण-महाभारत और पुराणाश्रित दशावतारों की कथा कही गयी है। बारहवीं शती में जैन आचार्य कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित नामक बृहत्काय ग्रन्थ की सर्जना की । हेमचन्द्र ने इसे महाकाव्य कहा है, पर वस्तुत: वह संस्कृत में श्लोकबद्ध जैन पुराण है। उसमें जैनों के चौबीस तीर्थंकरों, बारह चक्रवर्तियों, नौ वासुदेवों, नौ बलदेवों और नौ प्रतिबलदेवों की जीवन-गाथा दस पर्यों में वर्णित है । अन्तिम परिशिष्ट पर्व अथवा स्थविरावलीचरित पौराणिक-कथात्मक शैली का एक स्वतन्त्र महाकाव्य है । हरमन जैकोबी के कथानानुसार महाभारत-रामायण के समान जैन महाकाव्य के रूप में इसकी रचना की गयी है । बारहवीं शती में ही देवप्रभसूरि ने पौराणिक शैली में पाण्डवचरित नाम से १८ सर्गों में महाभारत की कथा लिखी । तेरहवीं शती में अमरचन्द्र सूरि ने बालभारत और वेंकटनाथ ने यादवाभ्युदय नामक बृहत् पौराणिक महाकाव्यों की रचना की । इस काल में जयद्रथ (सजानक) ने ३२ सर्गों का हरचरित१. Jacobi, Hermann : Introduction of Sthaviravali Carita,
Calcutta, 1932, p.24.