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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना अनादि काल से जगत् की व्यवस्था करता आया है' । इसी पद्य का प्रतिलोम पाठ करने पर निम्नलिखित पद्य प्रकाश में आता है
सन्नयेन गवे गेयो यो भूतो निजसाधवे।
चारुवीरमना दास धीराराधहितोऽजनि ॥
इस नवनिर्मित पद्य का अर्थ इस प्रकार है- 'जो नारायण उत्कृष्ट नीति का प्रवर्तक होने के कारण समस्त उस लोक के लिये स्तुत्य है, जिसके साधु ही सगे हैं, वही नारायण सदाचारी वीर पुरुषों का स्नेही होने के कारण विष्णु के विरोधियों (रावण-जरासन्ध) का मर्दक, धीरजशाली और चक्र (आर) के धारकों का कल्याणकर्ता बन गया था।
द्विसन्धान-महाकाव्य में गतप्रत्यागत शैली के चित्रालंकार ही नहीं बन्धचित्र से भी नये पद्य का निर्माण कर, उसमें भिन्नार्थ की योजना की गयी है । उदाहरण के लिये निम्नलिखित 'गोमूत्रिकागर्भश्लोक' दर्शनीय है
योऽपि ना हनुमानाजेर्जुष्टो भेरिरवो गीतः । नोऽरुजे तीर्थनीत्याथोऽसौ सहायकमस्तुत ।।
इस पद्य का अर्थ इस प्रकार है- 'युद्ध में तल्लीन, भेरियों के समान गरजता तथा पंचांग मन्त्रणा के द्वारा हमारी विपत्तियों का परिहारक जो यह हनुमान नाम का महापुरुष है उसने भी अपने सहायकों की प्रशंसा की थी (महाभारत पक्ष में-शिखरयुक्त अर्थात् पर्वतों के स्वामी भी हनूमान के स्थान पर हो सकेगा) यही आश्चर्य है'।
उक्त पद्य में अन्तर्भूत पद्य का प्रकाशन किस प्रकार किया जाए? इस सन्दर्भ में द्विसन्धान के टीकाकार नेमिचन्द्र निम्नलिखित विधि बताते हैं- सर्वप्रथम, उक्त पद्य के सभी पाद प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ के क्रम से ऊपर-नीचे लिखे जाने
चाहिएं । तत्पश्चात् वामभाग की ओर से प्रत्येक पाद के विषमाक्षरों-प्रथम, तृतीय, पंचम तथा सप्तम को ऊपर से नीचे की ओर तथा समाक्षरों-द्वितीय, चतुर्थ, षष्ठ १. द्विस.,१८.१३९ २. वही,१८.६८