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सन्धान- कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
द्विसन्धान में वर्णित कोष-संग्रहण के साधनों से तत्कालीन अर्थव्यवस्था का अनुमान सहज ही हो जाता है । धनञ्जय के अनुसार राजा बाजारों, खनिज क्षेत्र, अरण्य, समुद्र तट पर स्थित पत्तन, पशुपालकों की बस्तियों, दुर्ग इत्यादि से कर लेकर कोष वृद्धि करता था। १ अभिप्राय यह है कि कृषि, वाणिज्य, पशु-पालन तथा श्रम का तत्कालीन अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान था । इन सभी साधनों से राज-कोष समृद्ध होता था तथा कोष से आर्थिक नीति सुदृढ़ होती थी । फलत: शासक वर्ग द्वारा कृषि के लिये सिंचाई आदि के प्रबन्ध करने में विशेष रुचि दिखाने का उल्लेख आया है ।२ कारण यह प्रतीत होता है कि कृषि ही तत्कालीन अर्थव्यवस्था का प्रमुख घटक रही थी ।
वर्ण-व्यवस्था और आर्थिक विभाजन :
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प्राचीन काल से चली आ रही वर्ण-व्यवस्था से समाज की आर्थिक स्थिति प्रभावित रहती आयी थी । उत्पादन, वितरण तथा विनिमय जैसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक सिद्धान्त वर्ण-व्यवस्था से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध रहे थे । हिन्दू धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में वर्णों के अनुसार सामाजिक उद्योग एवं व्यवसाय विभक्त कर दिये गये थे । ३ मध्ययुग में वर्ण-व्यवस्था के अनुरूप व्यवसाय करने पर विशेष बल दिया जाने लगा था । समाज-व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिये यह आवश्यक था । ४
द्विसन्धान में ब्राह्मणों अथवा ऋषि मुनियों द्वारा पौरोहित्य कर्म तथा अध्यापन कार्य किये जाने के उल्लेख मिलते हैं । ५ षड्विधबल के सन्दर्भ में द्विसन्धान के टीकाकार नेमिचन्द्र ने निम्नलिखित छ: प्रकार की सेनाओं का उल्लेख किया है—
१. 'वणिक्पथे खनिषु वनेषु सेतुषु व्रजेषु योऽहनि निशि दुर्गराष्ट्रयोः । ', द्विस, २.१३ द्रष्टव्य - द्विस, २.२३
२.
पी.वी. काणे : धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ. १०९-११८
३.
४. नेमिचन्द्र शास्त्रीः आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ., १५२.
५. 'पुरोहितावर्तित जातकर्म नीरञ्जितं रत्नमिवाकरस्थम् ।', द्विस. ३.१९ तथा
६.
द्रष्टव्य - वही, ३९, २५
द्रष्टव्य-‘मौलभृतकश्रेण्यारण्यदुर्गमित्रभेदम् ।', द्विस. २.११ पर पद- कौमुदी टीका,
पृ. २७