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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना में वज्र, जलोत्पन्न वस्तुओं में मोती आदि समस्त क्रय योग्य पदार्थ सुलभ थे। इतना ही नहीं बहुमूल्य देवदारु की लकड़ी भी सर्वसुलभ थी। (५) शिल्प-व्यवसाय
आर. सी. मजूमदार के अनुसार- श्रेणी शब्द व्यापारियों अथवा शिल्पियों के संगठन का बोधक है । भिन्न जाति के किन्तु समान व्यवसाय तथा उद्योग अपनाने वाले लोगों के संगठन की स्थिति से श्रेणिक का वैशिष्ट्य स्वीकार किया जाता है। द्विसन्धान-महाकाव्य के टीकाकार नेमिचन्द्र ने 'षड्विध बल' की व्याख्या में अठारह श्रेणियों की परिगणना की है। इस प्रकार की गणना को इतिहासकारों ने पारम्परिक मान्यता माना है।६
द्विसन्धान-महाकाव्य में उल्लिखित शिल्प-व्यवसायियों तथा अन्य जीविकोपार्जन सम्बन्धी व्यवसायों का विवरण इस प्रकार है
१. लौहकार (लुहार) –लोहे का काम करने वाला २. कच्छी (मालाकार) – रहट चलाने वाला (माली) ३. कंचुकश्री (दी) -कपड़े सीने वाला ४. तलवर्ग (महावत) – हाथी संचालन करने वाला
५. अश्ववार (साईस)११ –घोड़े प्रशिक्षित अथवा संचालन करने वाला १. द्विस,१३४ २. वही,१३६ ३. आर.सी.मजूमदार : प्राचीन भारत में संघटित जीवन,पृ.१८ ४. वही ५. द्विस.,२.११ पर पद-कौमुदी टीका,पृ.२७ ६. आर.सी.मजूमदार : प्राचीन भारत मे संघटित जीवन,पृ.१८ ७. द्विस.,५.११-१२ ८. वही,१.१३ ९. वही,१.४ १०. वही,४३७ .११. वही,१.१६