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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना नवीन विधा का प्रवर्तक महाकाव्य भी है जिसे नानार्थक अथवा सन्धान-विधा के नाम से विशेष लोकप्रियता प्राप्त हुई है।
आलोच्य सन्धान-कवि धनञ्जय का अस्तित्वकाल आठवीं शती ईस्वी के लगभग रहा था । डॉ. ए. एन. उपाध्ये तथा डॉ. वी.वी. मिराशी प्रभृति विद्वानों ने भी धनञ्जय के अस्तित्वकाल को आठवीं शती ईस्वी के लगभग ही स्वीकार किया है। जैन-धर्मावलम्बी धनञ्जय बहुविध काव्य-प्रतिभा के धनी थे। 'नाममाला' तथा 'अनेकार्थनाममाला' जैसी कोशशास्त्रीय एवं भाषावैज्ञानिक कृतियों के प्रणेता होने के अतिरिक्त 'विषापहार-स्तोत्र' उनका एक प्रसिद्ध भक्तिपरक स्तोत्र-काव्य जैन जगत् में अपनी साहित्यिक उत्कृष्टता की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रखता है । जैन पौराणिक वृत्त पर लिखा गया 'यशोधरचरित' एक चरित काव्य की विशेषताओं से अलंकृत है । इन सभी कृतियों में 'द्विसन्धान-महाकाव्य' एक सर्वोत्कृष्ट रचना है जिसमें कवि ने अपनी अद्भुत काव्य-प्रतिभा के साथ-साथ अपने विलक्षण पाण्डित्य एवं भाषा-आधिपत्य की असाधारण योग्यताओं का सफल प्रदर्शन किया
धनञ्जयकालीन काव्य प्रवृत्तियों ने समसामयिक यग-चेतना से दिशा प्राप्त की थी। राजनैतिक दृष्टि से अराजक भारत में विद्वान् कवि राज्याश्रय के बिना प्रोत्साहन नहीं पा सकते थे फलत: कवियों का काव्य राज-दरबार की शोभा बन गया था। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि धनञ्जय जैसे कवियों का आविर्भाव होता और युग-चेतना के अनुरूप ही काव्य को अलंकार-मण्डन जैसे कृत्रिम परिधानों से आवेष्टित कर लिया जाता। वीर एवं शृङ्गार इस युग की सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य-प्रस्तुति मानी जाने लगी थी। इन्हीं युग-प्रवृत्तियों तथा काव्य-प्रवृत्तियों को साकार करता हुआ धनञ्जय का द्विसन्धान-महाकाव्य आठवीं शताब्दी का एक अलंकार-प्रधान प्रतिनिधि-काव्य है जिसमें कवि की असाधारण प्रतिभा की चकाचौंध देखते ही बनती है। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि भारवि के किरातार्जुनीय महाकाव्य से कृत्रिम काव्य-सर्जना को पहले ही दिशा प्राप्त हो चुकी
थी। धनञ्जय ने द्विसन्धान-महाकाव्य में उसे पल्लवित एवं विकसित करने की विशेष चेष्टा की है तथा सन्धान-विधा ने एक नये काव्य-सूत्र को जन्म भी दिया है।
परम्परागत काव्य-लेखन का जहाँ तक सम्बन्ध है द्विसन्धान अपने पूर्ववर्ती महाकवि कालिदास, भारवि से प्रेरणा ग्रहण करते आये हैं। उनके अनेक पद्य