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सन्धान कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था के अन्तर्गत राजा उत्पादन के विविध स्रोतों सेर संग्रहण करता था जिनमें कृषि उत्पादन के अतिरिक्त बाजारों की विक्रेय वस्तुओं, खनिज पदार्थों, वन्य सम्पदाओं, समुद्रतटीय व्यापारों, पशुपालक बस्तियों, दुर्ग इत्यादि संस्थानों पर भी कर लगाये जाते थे । आर्थिक विभाजन की दृष्टि से वर्ण-व्यवस्था विविध प्रकार के व्यवसायों पर केन्द्रित हो चुकी थी जिनमें पौरोहित्य कर्म, युद्धकर्म, वाणिज्य कर्म तथा श्रमपरक कर्म प्रमुख रहे थे । कृषि अर्थव्यवस्था
मूलाधार थी। इसके साथ ही वृक्ष-व्यवसाय, पशुपालन व्यवसाय वाणिज्य एवं शिल्प-व्यवसाय भी जीविकोपार्जन के साधन रहे थे । तत्कालीन प्रचलित व्यवसायों में से लगभग डेढ़ दर्जन व्यवसायकर्मियों का द्विसन्धान-महाकाव्य में स्पष्ट उल्लेख आया है ।
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आवासपरक विविध संस्थितियों की दृष्टि से नगर एवं ग्राम मुख्य भेद कहे जा सकते हैं । द्विसन्धान - महाकाव्य नगर - जीवन का समृद्धिपरक चित्रण प्रस्तुत करता है । इसके साथ ही ग्राम 'निगम' के रूप में वर्णित हैं । इन निगमों को कृषि ग्राम अथवा व्यापारिक ग्रामों के रूप में भी स्पष्ट किया जा सकता है ।
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आलोच्य महाकाव्य में धर्म-दर्शन विषयक सामग्री युगानुसारी जैन धर्म की समन्वयमूलक प्रवृत्ति का दिग्दर्शन कराती है। पूजा-उपासना आदि धार्मिक गतिविधियों के अतिरिक्त संस्कार - विधान भी समाज में विशेष प्रचलित थे तत्कालीन राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा के अन्तर्गत विविध प्रकार की राजविद्याओं का वर्णन आया है जिनमें काव्य, व्याकरण, धनुर्विद्या, क्षत्रविद्या आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। विविध प्रकार की ललित कलाओं के साथ-साथ आयुर्वेद, सामुद्रिकशास्त्र, शकुनशास्त्र, स्वप्नशास्त्र आदि विषय भी तत्कालीन ज्ञान-विज्ञान के विशेष अङ्ग रहे थे । स्त्रियों की स्थिति सामन्तवादी भोग-विलास के परिवेश से जुड़ी चित्रित हुई है तथा पुरुष वर्ग की कामतृप्ति एवं मनोविलास के साधन की तरह उसका अङ्कन हुआ है ।