________________
२४६
सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना भारतीय इतिहासज्ञों ने निगम शब्द का अर्थ 'व्यापारिक संगठन' से जोड़ने की कोशिश की है। इस सिद्धान्त के जन्मदाताओं में के. पी. जायसवाल हैं, किन्तु मजूमदार प्रभृति इतिहासकार इस मत से पूर्णत: सन्तुष्ट नहीं हैं । अन्य संस्कृत जैन महाकाव्यों तथा ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर कुछ आधुनिक विद्वानों ने मध्ययुगीन निगम को 'ग्राम' की अपर संज्ञा के रूप में ही स्वीकार किया है ।३ यद्यपि निगमों में ग्राम-जीवन का प्राधान्य रहा था, किन्तु आर्थिक दृष्टि से इन्हें नगरों के समकक्ष रखा जा सकता है। ग्रामों का स्वरूप
सामान्यत: मध्ययुग में कृषि अथवा पशु-पालन व्यवसाय करने वाले ग्रामों का अस्तित्व था, किन्तु राजनैतिक संरक्षण तथा आर्थिक समृद्धि की सतत उन्नति से समसामयिक परिस्थितियों में निगमों का विकास हुआ। द्विसन्धान में ऐसे निगमों का बड़ा ही सजीव चित्रण हुआ है। द्विसन्धान के टीकाकार नेमिचन्द्र ने इन निगमों को भक्त-ग्राम के रूप में व्याख्यायित किया है ।५ द्विसन्धान-महाकाव्य में आये हुए वर्णनों के आधार पर एक ओर, इन निगमों में मोरों की ध्वनि करने, गायों के रम्भाने तथा मुर्गों की उछल-कूद के कारण ग्रामीण वातावरण बना हुआ था, तो दूसरी ओर समृद्धि-वैभव के कारण इनकी तुलना नगरों से की जा सकती है।६ नगर तथा नगर-जीवन
द्विसन्धान-महाकाव्य में वर्णित नगर के स्वरूप से यह प्रतीत होता है कि उस समय नगर आर्थिक रूप से समृद्ध थे। नगर जीविकोपार्जन की दृष्टि से समृद्ध होने के कारण अनेक जातियों के लोगों, पाषण्डियों, शिल्पियों आदि से युक्त थे।" १. डॉ.मोहनचन्दः जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज, पृ.२५३-२५६ २. वही ३. वही,पृ.२४४-२४५ ४. द्विस,४४६ ५. 'स रामः युधिष्ठिरश्च निगमान्- भक्तग्रामान् ददर्श ।', द्विस, ४.४६ पर पद-कौमुदी
टीका,पृ.६७ ६. 'निगमान्निनदैः शिखण्डिनां सुभगान्धेनुकहुङ्कृतैरपि ।
स ददर्श वनस्य गोचरान् कृकवाकूत्पतनक्षमान्नृपः ॥',द्विस.,४.४६ ७. वही, १.१८