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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना हैं तथा इस आयु तक उनके चूडाकरण संस्कार एवं यज्ञोपवीत संस्कार भी सम्पन्न हो जाते थे। गुरु अथवा अध्यापकों के अतिरिक्त राज्य के विभिन्न उच्चाधिकारी भी राजकुमारों को शिक्षा देने का कार्य करते थे। इसी प्रकार मुनि लोग त्रयी आदि विद्याओं की शिक्षा देते थे।
गुरु को प्रतिभाशाली तथा विद्वान् होना चाहिए। द्विसन्धान में उल्लिखित गुरु की योग्यताओं में विषय के सारभूत अर्थ का ज्ञान होना, लोक-व्यवहार का उपदेश देने की सामर्थ्य होना, काव्य, न्याय, व्याकरणादि महत्वपूर्ण विषयों के पूर्वपक्ष एवं उत्तरपक्ष दोनों पर अधिकार होना आवश्यक माना गया है। इसी प्रकार मायावी, प्रमादी, कुटिल, क्रोधी तथा गुरु की आज्ञा का अतिक्रमण करने वाले को कुशिष्य कहा गया है ।' स्पष्ट है योग्य शिष्य में ये अवगुण नहीं होने चाहिएं। द्विसन्धान में बालक को धनुर्विद्या की व्यावहारिक शिक्षा देने का भी स्पष्ट उल्लेख हुआ है । द्विसन्धान में आये हुए उल्लेखों के अनुसार विद्यार्थी अपने ही नगर के शिक्षकों से ज्ञानार्जन करते थे। इन्हें किसी दूसरे नगर में अध्ययनार्थ जाने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती थी। राजप्रासादों में राजकुमारों को शिक्षा देने की व्यवस्था थी। द्विसन्धान के अनुसार अन्य विद्याओं के अध्ययन के साथ-साथ व्याकरण अध्ययन को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ा जाता था। प्रारम्भ में व्याकरण सिखाते समय सुप्-तिङ्, पदों के प्रयोग, षत्वणत्वकरणविधि, सन्धि एवं विसर्ग विधान के अभ्यास कराये जाते थे ।१० द्विसन्धान में लिपियों के पठन-पाठन को भी विद्या के रूप में स्वीकार किया गया है ।११
१. द्विस,३.२४ २. वही,३.२५ ३. वही ४. वही,१३५ ५. वही,५.६७ ६. वही,३.३६ ७. वही,१३५ ८. वही, ३.२५ ९. वही,३.३६ १०. वही ११. वही,३.२४