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द्विसन्धान-महाकाव्य का सांस्कृतिक परिशीलन
२५५ राजविद्या के अन्तर्गत आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता तथा दण्डनीति का अध्ययन कराया जाता था। इसका अपरनाम क्षत्रविद्या भी था । द्विसन्धान की पद-कौमुदी टीका के अनुसार आन्वीक्षिकी आत्मविद्या को कहते हैं, इसका शिष्ट-जन उपदेश करते थे। त्रयी के अन्तर्गत धर्माधर्मविवेक आता है५, इसकी शिक्षा मुनियों द्वारा दी जाती थी। वार्ता के अन्तर्गत लाभ, हानि आदिकी चर्चा होती है, इस विद्या की शिक्षा अमात्य आदि उच्चाधिकारी देते थे। दण्डनीति का न्याय-अन्याय से सम्बन्ध होता था , इस विद्या की शिक्षा देने वाले न्यायाधीश अथवा शासकादि होते थे ।१०
चापविद्या से द्विसन्धान में धनुर्विद्या की ओर संकेत किया गया है । विविध प्रकार के बाणों को चलाने आदि की शिक्षा चापविद्या के अन्तर्गत आती थी।११ गुरु राजकुमार को सर्वप्रथम धनुषविद्या को सिखाते हुए चरणविन्यास, ज्यास्फालन, लक्ष्यसन्धान तथा बाण-विसर्जन सम्बन्धी अभ्यास कराते थे ।१२ चापविद्या के अभ्यास के समय शब्द-वेधी बाणों को चलाना तथा उच्च रचनाओं में नैपुण्य प्राप्त करना भी आवश्यक था ।१३ प्राय: राजकुमार धनुष चलाने में इतने अभ्यस्त हो जाते थे कि ज्यास्फालन के अवसर पर सारा धनुष मुड़कर वृत्ताकार हो जाता था ।१४ गुणग्राहिता, नमनशीलता, शुद्ध बाँस से निर्मित होना आदि उत्कृष्ट धनुष की
१. द्विस,२.८ पर पद-कौमुदी टीका,पृ.२६ २. वही,१५.१२० ३. वही,३.२५ पर पद-कौमुदी टीका में उद्धृत कामन्दकनीतिसार,२.७ ४. द्विस.,३.२५ ५. वही,३.२५ पर उद्धत का.नी.,२.७ ६. द्विस.,३.२५ ७. वही,३.२५ पर उद्धृत का.नी.,२.७ ८. द्विस.,३.२५ ९. वही,३.२५ पर उद्धृत का.नी.,२७ १०. द्विस.,३.२५ ११. वही,३.३५ १२. वही, ३.३६ १३. वही,३.३७ १४. वही,३.३८