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द्विसन्धान महाकाव्य का सांस्कृतिक परिशीलन
२५१ सुफल का देने वाला कहा गया है । सिद्ध कषायों का परित्याग कर चित्त की निर्मलता से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र-रत्नत्रय में वृद्धि कर केवल ज्ञान को प्राप्त करने वाला होता है ।२ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तथा वीर्य-इन पंचाचारों का आचरण करने वाला आचार्य होता है । समस्त शास्त्रो के समीचीन उपदेशक को उपाध्याय माना गया है। साधु अनेक प्रकार की बाह्य तथा आभ्यन्तर तप-साधना में लीन रहने वाले को कहते हैं ।५ द्विसन्धान में व्रत-नियमादि के पालन का उद्देश्य स्वर्गेच्छा मानी गयी है ।६ विजयोत्सवों पर पूजा-विधान
प्राचीनकालीन भारत में विजयोत्सव के अवसर पर विभिन्न प्रकार के पूजा-विधानों के उल्लेख इतिहास में देखने को मिलते हैं । द्विसन्धान में भी राम अथवा कृष्ण विजय प्राप्ति के पश्चात् चक्ररत्न की पूजा करने के अनन्तर राज्य का शासन सूत्र सम्भालते हैं। संस्कार-विधान
नामकरण आदि संस्कारों के अवसर पर भी विविध प्रकार की धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप अनेक विधानों का उल्लेख द्विसन्धान-महाकाव्य में उपलब्ध होता है। गर्भ धारण करने के आठ महीने बाद पुत्रेच्छा से सम्पन्न होने वाली पोस्नवन संस्कार विधि पुरोधा अथवा पुरोहित द्वारा सम्पादित की जाती थी। सद्योत्पन्न शिशु की नाभि के नाल को भूमि में दबाने की परम्परा प्रचलित थी। इसी प्रकार द्विसन्धान में चूडाकरण तथा उपनयन संस्कार आदि के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं ।१०
१. द्विस.,१२.४८ २. वही,१२:४९ ३. वही,१२.५० ४. वही ५. वही ६. वही,१२.२८ ७. वही,१८.१३३ ८. वही, ३.९ तथा इस पर पद-कौमुदी टीका ९. वही,३.१३ १०. वही,३.२४