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अलङ्कार-विन्यास
वाजीभविपिनेऽयेये जीनारावे रजोमये। भरादपेतै राजोने विवेपेऽरिशतैरपि ।
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उपर्युक्त चित्र में ऊपर वाले पंक्ति चतुष्टय में वामभाग से दक्षिणभाग की ओर तथा नीचे वाली पंक्तियों में दक्षिणभाग से वामभाग की ओर; पुनश्च वामभाग वाले पंक्तिचतुष्टय में ऊपर वाले कोष्ठ से नीचे की ओर तथा दक्षिणभागस्थ पंक्तिचतुष्टय में नीचे के कोष्ठ से ऊपर की ओर अनुलोम पठन करने से प्रथमादि पादों का उत्थान होता है, अत: अर्धभ्रम है। (v) श्लोकगूढ़ अर्धभ्रम
द्विसन्धान-महाकाव्य में अर्धभ्रम चित्रालङ्कार के उपयोग से सम्पूर्ण श्लोक के गोपन का अभिनव प्रयोग किया गया है । इस प्रकार के प्रयोग का काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में उल्लेख नहीं मिलता, जो सन्धान-कवि धनञ्जय की मौलिकता का परिचायक है । इस प्रयोग के लिये द्विसन्धान का निम्न पद्य द्रष्टव्य है
कन्याहेमपुरो लेभे मायी यायात्र कातरे।
शुद्ध्यानपेतो यामायानयं यातो यमक्षत ॥२ १. द्विस.,१८.११३ २. वही,१८१२१