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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना का अपहरण कर लेना है । द्विसन्धान के अध्ययन से पता चलता है, कि युद्ध प्रारम्भ करने से आक्रमणकारी राजा प्रतिपक्षी राजा को पूर्ण स्थिति से अवगत कराता था। द्विसन्धान में दो स्थानों पर इस प्रकार के प्रसंग देखने में आते हैं । एक, सुग्रीव के पास लक्ष्मण दूत रूप में जाकर उसे उसके प्रमाद के लिये ताड़ते हैं । फलस्वरूप सुग्रीव सन्धि कर लेता है। दूसरे, हनुमान तथा श्रीशैल दूत रूप में रावण तथा जरासन्ध से युद्ध का कारण बताते हुए सीता या सुन्दरी को लौटाने का परामर्श देते हैं। प्रतिपक्षी रावण परामर्श न मानकर युद्ध का निश्चय करता है ।। युद्धनीति तथा मन्त्रिमण्डल द्वारा विचार-विमर्श
राजनैतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में राज्यसत्ता मुख्य रूप से सैन्य-बल पर ही निर्भर करती थी। कौटिल्य के मत में राजा सदैव अमात्यों तथा बाह्य राजाओं के कोप से भयभीत रहता था। इसी कारणवश परराष्ट्र नीति में सेना तथा युद्धों का महत्व बढ़ गया था। विजिगीषु राजा को दण्डनीति के प्रयोग से पूर्व मन्त्रणा लेनी आवश्यक थी। द्विसन्धान में साम-दान-भेद-दण्ड, इन चारों उपायों के देशकालानुसारी उपयोग पर बल दिया गया है, क्योंकि सामादि के द्वारा मित्र-प्राप्ति तथा शत्रु-विनाश होता है तथा दण्ड के द्वारा शत्रु ही होते हैं, मित्र नहीं, अत: साम के स्थान पर दण्ड और दण्ड के स्थान पर साम का प्रयोग नहीं करना चाहिए।४ इसके अतिरिक्त दण्ड के प्रयोग से पूर्व प्रतिपक्षी राजा की शक्ति अर्थात् कितनी उसकी अपनी शक्ति है और कितनी उसे दूसरों से मिल सकती है, का ज्ञान कर लेना आवश्यक माना गया है ।५ युद्ध होने पर बन्धु-बान्धवों आदि निर्दोष लोगों को हानि न पहुँचे इसका विशेष ध्यान रखा जाता था।६
१. द्रष्टव्य-द्विस.,सर्ग १० २. द्रष्टव्य - वही,सर्ग १३ ३. कौटिलीय अर्थशास्त्र,६.१.१
'साम्ना मित्रारातिपातो भवेतां दण्डेनारं केवलं नैव मैत्री। सान्त्वे दण्ड: साम दण्डे न वढेर्दाहोऽस्त्येकः शैत्यदाहो हिमस्य ॥',द्विस.,११.१७ 'अप्यज्ञात्वा रावणावार्यशक्ति के मे तन्त्रावापयोश्चेत्यमत्वा । नो स्थातव्यं देशकालानपेक्षं शय्योत्थाय धावतां कार्यसिद्धिः॥', वही, ११.२१ 'तत्संहारो मा स्म भूद्वन्धुतायाः सिद्धादेशव्यक्तये सिद्धशैलम्। नीत्वा विष्णुं तं परीक्षामहेऽमी ज्ञात्वा दण्डं साम वा योजयामः॥'वही,११.४०