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अलङ्कार-विन्यास
हरिः क्रान्तमतं भूतगरिमान्तगतं बत। वरित्सुं तत्र तष्ट्वा तमरिणान्तरतप्यत्।।
ह' | रि१८ | क्रां | त° | म | त२ | म्भू
त४
व७ |
रि२ | त्सु९ | त | १ | तर्प ष्ट्वा३ म५ | रि० | णां७ | त२ | २२९ | त४ | प्य१ | त६
प्रस्तुत चित्र में कोष्ठ में लिखे अंकों के अनुसार इस बन्ध में केवल दो घर सीधी तथा एक घर दक्षिण पार्श्व में गति करने पर उक्त पद्य के चारों पादों का उत्थान हो जाता है, अत: शरयन्त्रबन्ध है। (ii) मुरजबन्ध
इस बन्ध में श्लोक के चारों पादों को चार पंक्तियों में लिखकर प्रथम पाद के प्रथमाक्षर को तृतीय पाद के द्वितीय अक्षर के साथ और तृतीय पाद के प्रथमाक्षर को प्रथम पाद के द्वितीयाक्षर के साथ मिलाकर पढ़ना चाहिए । इसी प्रकार द्वितीय पाद के प्रथमाक्षर को चतुर्थ पाद के द्वितीयाक्षर के साथ तथा चतुर्थ पाद के प्रथमाक्षर को द्वितीय पाद के साथ मिलाकर पढ़ना चाहिए। यह क्रम पाद-समाप्ति तक चलता है । इस विधि से पद्य की पूर्ति हो जाती है । द्विसन्धान-महाकाव्य में इस चित्रबन्ध का विन्यास निम्नलिखित पद्य में हुआ है
हरि : क्रान्तमतं भूतगरिमान्तगतं बत। वरित्सुं तत्र तष्ट्वा तमरिणान्तरतप्यत ॥२
१. द्विस,१८.१०४ २. वही