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द्विसन्धान-महाकाव्य का सांस्कृतिक परिशीलन
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इसमें सर्वाधिक छाप पड़ी है । द्विसन्धान - महाकाव्य सामन्तवादी राजचेतना का सुन्दर निदर्शन प्रस्तुत करता है । युग चेतना के राजनैतिक सन्दर्भों से यह अधिक जुड़ा हुआ है। तत्कालीन राजाओं की राजनैतिक गतिविधियाँ शासन तन्त्र, युद्ध व्यवस्था एवं सैन्य व्यवस्था की दृष्टि से द्विसन्धान - महाकाव्य की सांस्कृतिक सामग्री अत्यन्त समृद्ध एवं ऐतिहासिक दृष्टि से उपादेय कही जा सकती है । राजनैतिक जन-जीवन के अतिरिक्त लोक संस्कृति से सम्बद्ध अन्य पक्षों का भी द्विसन्धान-महाकाव्य में प्रसंगानुसारी चित्रण आया है। यह स्वाभाविक ही है कि द्विसन्धान-महाकाव्य की कथावस्तु प्रधानतया राजनैतिक जन-जीवन को अधिक महत्व देती है । परिणामस्वरूप लोक जीवन के अन्य पक्ष इतने विशद नहीं हो पाये हैं जिससे कि समाज की विविध संस्थाओं का एक व्यवस्थित रूप उभर कर आ सके। इसी युग चेतना की पृष्ठभूमि में द्विसन्धान - महाकाव्य के सांस्कृतिक परिशीलन का विवेचन किया गया है ।
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(क) राजनैतिक अवस्था द्विसन्धान-महाकाव्य की युगीन राजनैतिक परिस्थितियाँ -
द्विसन्धान- महाकाव्य में प्रतिपादित राजनैतिक अवस्था के अवलोकन से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि सातवीं-आठवीं शती ई. किन अराजकतापूर्ण राजनैतिक परिस्थितियों से विचरण कर रही थी । ६३४ ईस्वी में हर्षवर्धन की मृत्यु के उपर्यन्त समग्र भारत में ऐसी कोई प्रभावशाली राजशक्ति नहीं रही थी जो विविध राज्यों को जीतकर एकच्छत्र राज्य की स्थापना कर सके । गुप्त राजाओं के समय में जिस सामन्त पद्धति का प्रारम्भ हो चुका था वह अब उत्तरोत्तर वृद्धि पर थी । धीरे-धीरे समस्त भारत में स्वतंत्र राज्यों की स्थापना होने लगी थी । शक्तिशाली राजा गुट बनाकर निर्बल राजाओं के राज्यों को हथियाने में लगे हु थे जिसके परिणामस्वरूप समग्र भारत के राजनैतिक वातावरण में युद्धों के बादल मंडरा रहे थे । द्विसन्धान-महाकाव्य के रचनाकाल आठवीं सदी में उत्तरी भारत में पाल, गुर्जर-प्रतिहार, कर्कोटक आदि राजवशों तथा दक्षिणी भारत में राष्ट्रकूट, पल्लव, गंग, चोल, चालुक्य आदि राजवंशों की शासन प्रणालियाँ वर्तमान थीं । प्राय: इन्हीं राजवंशों के उत्थान - पतन सम्बन्धी राजनैतिक गतिविधियों से आठवीं सदी का भारत गुंजायमान था । भारत के विविध प्रान्तों में राष्ट्रीयता की भावना का स्थान
१. सत्यकेतु विद्यालङ्कार : भारत का प्राचीन इतिहास, मसूरी, १९६७, पृ. ६२२