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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना कोष-संग्रहण
__ द्विसन्धान-महाकाव्य के अनुसार वणिक्-पथ, खान, वन, सेतु, व्रज, दुर्ग तथा राष्ट्र राज्य की कोष वृद्धि के महत्वपूर्ण साधन थे । वणिक्पथ अर्थात् व्यवसायियों के मार्गों (बाजारों) से खानों अर्थात् रत्नोत्पत्ति स्थानों से, वनों से, सेतु अर्थात् समुद्र तट पर आने जाने वाले व्यापारियों की नौकाओं से, वजों अर्थात् पशु-पालन व्यवसाय करने वाले ग्रामों अथवा गोकुलों से राजा अपने कोष की वृद्धि करते थे। दुर्ग से आय-वृद्धि होने का अभिप्रेतार्थ दुर्गों में व्यवसाय करने वालों से लिया गया शुल्क संभव हो सकता है ।
नीतिवाक्यामृतकार ने राष्ट्र को पशु-धान्य-हिरण्य (स्वर्ण) आदि सम्पत्तियों से सम्पन्न माना है। राजा की आय-वृद्धि के प्रमुख साधन ये राष्ट्र भी थे । सामन्त राजाओं द्वारा उपहार आदि के रूप में स्वामी राजाओं को अनेक प्रकार की धन-संपत्ति इन्हीं राष्ट्रों से प्राप्त होती थी। इस प्रकार द्विसन्धान-महाकाव्य के वर्णनानुसार उपर्युक्त सात स्रोतों से राज्य-कोष में वृद्धि सम्भव थी। शासन-व्यवस्था
धनञ्जयकालीन भारत अनेक राज्यों में विभक्त था । प्रमुख राज्यों का मित्र देशों से राजनीतिक तथा व्यापारिक सम्बन्ध भी रहता था। अतएव तत्सम्बन्धी विचारों का समावेश भी द्विसन्धान-महाकाव्य में हुआ है । राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में द्विसन्धान-महाकाव्य में शासन-व्यवस्था के विभिन्न पदों का उल्लेख आया है,५ जो इस प्रकार हैं१. 'वणिक् पथे खनिषु वनेषु सेतुषु व्रजेषु योऽहनि निशि दुर्गराष्ट्रयोः।',द्विस,२.१३ २. वही,२.१३,पर पद- कौमुदी टीका,पृ.२८ ३. द्रष्टव्य- नीतिवाक्यामृत,२०.१ ४. 'पशुधान्यहिरण्यसम्पदा राजते शोभते इति राष्ट्रम्',वही,१९.१
द्रष्टव्य-‘अमात्यं सचिवं महत्तरं पुरोहितं दण्डनायकं च,द्विस, २.१२ पर पद-कौमुदी टीका, पृ.२८ तथा 'दुर्गाध्यक्षधनाध्यक्षकर्माध्यक्षसेनापतिपुरोहितामात्यज्योतिः शास्त्रज्ञा हि मूलं क्षितिपतीनां',द्विस.,२:२२ पर नेमिचन्द्र कृत टीका,पुनश्च "भाण्डागारी चमूभर्ता दुर्गाध्यक्षः पुरोहितः। कर्माध्यक्षोऽथ दैवज्ञो मन्त्री मूलं हि भूभृताम् ॥", द्विस.,२.२२ पर पद-कौमुदी टीका,पृ.३१ पर उद्धृत