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द्विसन्धान-महाकाव्य का सांस्कृतिक परिशीलन
२२५ राजा था तथा सदैव अपने मन्त्रियों की मन्त्रणाओं को शासन कार्य में उचित स्थान देता था।
द्विसन्धान-महाकाव्य के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि राजकीय आदर्श की दृष्टि से राजा के लिये मन्त्रियों अर्थात् मन्त्रिमण्डल का परामर्श कितना आवश्यक है । सामान्यत: परम्परा चली आ रही थी कि राजा को अपने मन्त्रियों से परामर्श करके ही राजकार्य चलाना चाहिए। मनु के मत में जिन विषयों पर मन्त्रियों से मन्त्रणा करना आवश्यक है, वे हैं-शान्ति एवं युद्ध, स्थान (सेना, कोश आदि), कर के उद्गम, रक्षा, उपलब्ध धन की रक्षा तथा उसका वितरण ।२ द्विसन्धान-महाकाव्य में 'मन्त्रशाला' में राजाओं-मन्त्रियों आदि की मन्त्रणा होने का उल्लेख हुआ है, जिसका मुख्य विषय था- युद्ध की स्थिति पर विचार करना । यह 'मन्त्रशाला' सब प्रकार के कोलाहल से रहित मैना, तोता आदि तक के प्रवेश से वर्जित थी। ठीक ऐसे ही मन्त्रणा-स्थल के उपयोग का निर्देश कौटिल्य ने किया
द्विसन्धान-महाकाव्य में मन्त्रणा के पाँच तत्त्व स्वीकार किये गये हैं१.मन्त्रणा-स्थान, २. मन्त्रणा-काल, ३. मन्त्रणीय विषय-कारम्भ, ४. उपाय तथा ५.मन्त्रदाता । मन्त्रणा का स्वरूप चार दृष्टियों से स्पष्ट होता था- अर्थसाधक अर्थ, २. अनर्थकारी अर्थ, ३. अर्थबाधक अनर्थ तथा ४. अनर्थकारी अनर्थ ।
१. हर्षचरित,६ २. मनुस्मृति,७.५८-५९ ३. द्विस.,सर्ग ११ ४. वही,११:२ ५. द्रष्टव्य-कौटिलीय अर्थशास्त्र,१.१५ ६. 'मन्त्रं पञ्चकं शास्त्रशुद्धैः,द्विस.,११.२ तथा इस पर कथम्भूतं मन्त्रम् ? पञ्चकं पञ्चावयवा
यस्य तम्, कस्मिन्मन्त्र्यम्, किम्मन्त्र्यम, कैः सह मन्त्र्यमिति त्रिविधो विकल्पः। आद्यो देशकालापेक्षया द्विष्ठः द्वितीय कर्मणामारम्भोपाय इत्यादिभिः पञ्चकः।', पद-कौमुदी
टीका,पृ.१९९-२०० ७. 'तेनालोच्यं वोऽनुबन्धेश्चतुर्भिः',द्विस.११.३ तथा इस पर अनुबन्धैःकतिसंख्योपेतैः?
चतुर्भिः-अर्थोऽर्थः, अर्थमनर्थः, अनर्थमर्थः, अनर्थमनर्थः, अत्र वासना निरूप्यते अर्थाऽर्थानुबन्धी, अर्थोऽनर्थानुबन्धी, अनर्थोऽर्थानुबन्धी, अनर्थोऽनर्थानुबन्धीत्येवं रूपैरिति ।',पद-कौमुदी टीका,पृ.२००