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सन्धान- कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
नरेन्द्र', भूपति, नरेश्वर, भूभुज, जगतीपति', जगतीभुज, महीभुज ̈, महीपति', महीक्षित९, विश्वविश्वम्भरानाथ १०, भूप ११, भूमिप १२, क्ष्माधिप १३, भूभृत१४, सामन्त१५, चक्री(चक्रवर्ती) १६, अवनिस्वामी १७ आदि संज्ञाएं राजा के लिये प्रयुक्त हुई हैं । राजा के लिए प्रयुक्त पुराणोक्त अभिधानों में से चक्रवर्ती भरत क्षेत्र के छः खण्डों का१८ तथा अर्धचक्रवर्ती तीन खण्डों का १९ स्वामी होता था । राजा के महाराज, माण्डलिक, सामन्त आदि भेद सामान्यत: राजा के अर्थ में ही प्रयुक्त होते थे, किन्तु गुप्तकाल से प्रारम्भ होने वाली शासन व्यवस्था में इन संज्ञाओं में राज्य-शक्ति एवं धन-समृद्धि के आधार पर पार्थक्य रहा था । उदाहरणत: 'महाराज' सामान्य राजा से कुछ अधिक राज्य का स्वामी होता था । 'माण्डलिक' के अन्तर्गत भी अनेक राजा एवं सामन्त होते थे । सामन्तों को प्राय: 'राजा', 'भूपति', 'भूभुज',
१. द्विस., ३.२३,४.३८, ६.४७, १३.४२, १६.१७,८०
२. वही, ४.१, ६.४४, १०.१४,१६.५५, १८.१३५
३. वही, ४.३०,
४. वही, ४.४३, १८.८४
५.
वही, ५.४६
६.
वही, ६.२०
वही
वही, ६.३३
वही,६.३८,१६.६०
१०.
वही, ७.२०
११. वही, ८.३०, १४.४, २४, १५.५०, १६.५७, १८.१३६
१२. वही, ८.३१,१६.७८
७.
८.
९.
१३. वही, ८.३२
१४. वही, १०.३३
१५. वही, १४.५, १८.११४,१८.१३७
१६. वही, १७.४
१७. वही, १८.१४५
१८. तु. - 'बत्ती ससहस्समउडबद्धपहुदीओ । होदि हु सयलं चक्की तित्थयरो सयलभुवणवई ॥', तिलोयपण्णत्ति, १.४८
१९. तु. ——' तदनन्तर स्वर्गं गत्वा पुनर्मनुष्यो भूत्वा त्रिखण्डाभिपतिर्वासुदेवो भवति । ', परमात्मप्रकाश १.४२ पर टीका, पृ. ४२