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द्विसन्धान-महाकाव्य का सांस्कृतिक परिशीलन
२१९ दण्ड का और दण्ड के स्थान पर साम का प्रयोग युक्तियुक्त नहीं है । साम नीति को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिये दान का प्रयोग किया जाता था, इसलिए सिद्धान्त रूप से साम और दान युद्ध-विरोधी नीति हैं । साम तथा दान में कुछ अन्तर भी है वह यह कि समान शक्तिशाली राजा केवल साम के व्यवहार से युद्धाभिमुख हो सकते हैं, किन्तु शक्तिशाली तथा निर्बल राजाओं के मध्य साम के साथ दान का प्रयोग आवश्यक है । अस्तु , साम के द्वारा शत्रु का प्रतिकार सम्भव नहीं, इसलिए गुप्तचरों द्वारा शत्रु राजा के परामर्शदाताओं में भेद डाल देने से उसका राज्य जीतना सुगम हो जाता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि तत्कालीन राजनीति में चारों उपायों का स्वतन्त्र अस्तित्व रहा होगा। राज्य-व्यवस्थाराजाओं के भेद तथा उपाधियाँ
जैन पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्राय: राजाओं के चक्रवर्ती, अर्धचक्रवर्ती, मण्डलेश्वर, अर्धमण्डलेश्वर, महामाण्डलिक, अधिराज, राजा, नृपति, भूपाल आदि भेद थे। द्विसन्धान-महाकाव्य में प्रजापति, राजा , नृपति , नृप ,
१. 'साम्ना मित्रारातिपातो भवेतां दण्डेनारं केवलं नैव मैत्री।
सान्त्वे दण्डः साम दण्डे न वढेर्दाहोऽस्त्येकः शैत्यदाहौ हिमस्य ॥',द्विस.,११.१७ २. . तु.-'उक्तञ्च
सामप्रेमपरं वाक्यं दानं वित्तस्य चार्पणम् ।
भेदो रिपुजनाकृष्टिः दण्ड: श्री प्राणसंहृतिः ॥'द्विस.४.१९ पर पद-कौमुदी टीका,पृ.५८ ३. द्रष्टव्य - पी.वी.काणे : धर्मशास्त्र का इतिहास,भाग २,पृ.६६०-६१
‘साम्नारब्धे शात्रवे कि चरैर्वा भेद्या दूतैरेव तस्योपजाप्याः।
भिन्नं राज्यं सुप्रवेशं मणिं वा वज्रोत्कीर्णं निर्विशेत्कि न तन्तु ॥',द्विस.,१११९ ५. डॉ.नेमिचन्द्र शास्त्री : आदिपुराण में,पृ.३६४-३६५
द्विस.,२.३ वही,२.३२;३.१,१६,१७,३०,५.१,२२,३३;७.३०,६०८.२५,३४,५७;१०.४३;
११.२८,४१,१४७,२५,३५,१६.४,९,१८,४३,५९,८०,१७.२४,८३,१८.३,११३ ८. वही,३.२२,४.४४६.३;८.४९,९.१४,१४१७,२६,१६७७ ९. वही,१३७;२.१६,४.८,१२,१७,३७,५०,५३;६.८,२९,७६१,८४,८.५५:१०:२०;
१३.४४,१६७,२०,५४,८६,१७.२२