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अष्टम अध्याय
द्विसन्धान-महाकाव्य का सांस्कृतिक परिशीलन
विभिन्न युगों में महाकाव्य सामाजिक अनुप्रेरणा के युगानुसारी मूल्यों से प्रेरित होकर निर्मित होते आये हैं। रामायण-महाभारत विकसनशील परम्परा के महाकाव्य होने के कारण सांस्कृतिक जनजागरण के बहुत समीप हैं परन्तु अलंकृत शैली से प्रभावित द्विसन्धान आदि महाकाव्यों पर युगीन साहित्यशास्त्रीय प्रवृत्तियाँ अधिक हावी रही हैं । फलत: रामायण आदि महाकाव्यों में प्रतिबिम्बित समाज और संस्कृति की विविधता का जैसा रूप प्रतिपादित किया जा सकता है, अलंकृत शैली के महाकाव्य उतने व्यावहारिक सिद्ध नहीं हो पाते हैं। धनञ्जय कृत द्विसन्धान-महाकाव्य में प्रतिपादित सांस्कृतिक सामग्री के सन्दर्भ में यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि कवि ने किस प्रकार से अपनी अलंकार प्रधान काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन करने हेतु दो राष्ट्रीय स्तर के महाकाव्यों की कथा को आधार बनाते हुए एक ऐसे राघवपाण्डवीय नामक तीसरे महाकाव्य का सृजन किया जिसके सांस्कृतिक तथा सामाजिक सूत्र दो भिन्न-भिन्न युगों से सम्बद्ध हैं। फिर भी स्वीकार करना होगा कि चाहे कथानक कितना ही पुराना हो कवि द्वारा उस पर तैयार किया गया काव्य अपनी युग चेतना से प्रभावित रहे बिना नहीं रह सकता। इसीलिए साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है। कवि की समसामयिक परिस्थितियाँ उसे काव्य अथवा महाकाव्य का वस्त्र ओढ़ाती हैं और इस प्रकार किसी भी काव्य के समीक्षात्मक अध्ययन का एक आधार उसका सांस्कृतकि अध्ययन भी हो सकता है।
द्विसन्धान-महाकाव्य के महाकाव्यत्व पर प्रकाश डालते हुए यह विशद कर दिया गया है कि यह युगानुसारी समाज चेतना से विशेष रूप से अनुप्राणित है। एक राजदरबारी काव्य की विशेषताओं के कारण तत्कालीन राजनैतिक चेतना की