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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना अब सामन्तवादी राजचेतना ने ले लिया था । इतिहास की अनेक तत्कालीन घटनाएं इस स्थिति को और अधिक विशद कर देंती हैं ।
आठवीं सदी के प्रारम्भिक भाग में कन्नौज के राजसिंहासन पर एक ऐसा व्यक्ति शासनारूढ़ हुआ जिसे यशोवर्मा के नाम से इतिहास में प्रसिद्धि प्राप्त है। प्रसिद्ध कवि वाक्पति राज के प्राकृत महाकाव्य गउडवहो में यशोवर्मा की दिग्विजय यात्राओं का भव्य निरूपण हुआ है । उसने मगध, बंगाल, दक्षिण में नर्मदा नदी के साथ-साथ अपनी विजय यात्राएं करते हुए राजस्थान तथा स्थानेश्वर को भी आक्रान्त किया। परन्तु यशोवर्मा इतना शक्तिशाली होने के बावजूद भी अधिक समय तक अपने साम्राज्य को स्थापित करने में समर्थ नहीं हो सका। उसका मुख्य कारण था तत्कालीन सामन्तवादी राज्य-व्यवस्था । सामन्त राजा अपनी निर्बलता को देखते हुए किसी भी शक्तिशाली राजा के अधीन हो जाते थे परन्तु थोड़े समय के उपर्यन्त अन्य सामन्तों के साथ मिलकर स्वतंत्र होने के लिये भी षडयंत्र रचते रहते थे। तत्कालीन शिलालेखों में इस अराजक स्थिति को मात्स्यन्याय के रूप में प्रतिपादित किया गया है । इसी काल में तत्कालीन राजनैतिक अराजकता से मुक्ति पाने की अपेक्षा से 'गोपाल' नामक राजा द्वारा ७६५ ईस्वी में बंगाल और मगध की शासन-व्यवस्था संभालने की घटना भी घटित हुई थी। राजा गोपाल किसी परम्परागत राजवंश का व्यक्ति नहीं अपितु जन-सामान्य द्वारा चुना गया एक वीर पुरुष था। इसी के साथ भारतीय इतिहास में पालवंश का प्रारम्भ भी माना जाता है । ७६९ से ८०९ ईस्वी के मध्य गोपाल का पुत्र धर्मपाल राजगद्दी पर बैठा। उसने भी अनेक विजय-यात्राओं द्वारा अपने साम्राज्य को विस्तृत करना चाहा। ७८३ ईस्वी में धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण कर उसके राजा इन्द्रराज को परास्त किया और उसके विरोधी चक्रायुध को वहाँ का राजसिंहासन सौंप दिया क्योंकि चक्रायुध धर्मपाल का आधिपत्य स्वीकार करने के लिये तैयार था। धर्मपाल की विजय-यात्राओं से यह भी ज्ञात होता है कि उसने कुरु, यदु, यवन, गांधार, भोज, मत्स्य, मद्र आदि अनेक राजाओं को परास्त कर उन्हें इस बात के लिये विवश किया कि वे सभी उसके सामन्त कन्नौज के चक्रायुध की अधीनता स्वीकार करें। अभिप्राय यह है कि राजाओं की राज्यविस्तार की लिप्सा सामन्त-पद्धति का मुख्य
१. सत्यकेतु विद्यालङ्कार : भारत का प्राचीन इतिहास,मसूरी,१९६७,पृ.६२४ २. वही,पृ.६२९