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आदि
अलङ्कार-विन्यास
------------→अन्त | भा
| वि | क्र | मं । का | मु | को | न | म | यन् । रान्
| मो | थ | च | क्रं | व | क्रो | रिः
वा
उपर्युक्त चित्र में क्रमश: प्रथम, द्वितीय, व तृतीय पादों के द्वितीय, तृतीय तथा द्वितीय पादों के चतुर्थ एवं प्रथम पाद के चतुर्थ, पंचम व षष्ठ अक्षरों का चयन कर गूढ़ चतुर्थ-पाद ‘प्रमुमोच न विक्रमम्' का उत्थान हुआ, अत: पाद गूढ़ चित्र है। अर्थालङ्कार
सन्धानात्मक-शिल्प वाले काव्यों की सौन्दर्यवृद्धि में जितने महत्वपूर्ण शब्दालङ्कार तथा चित्रालङ्कार हैं, अर्थालङ्कार भी उतना ही महत्व रखते हैं । स्वयं धनञ्जय ने अर्थालङ्कारों की आवश्यकता निम्न शब्दों में स्वीकार की है
वक्रोक्तिमुत्पेक्षणमङ्गबन्धं श्लेषं स्मरन्कृत्यबलातिमूढः । द्विसन्धिचिन्ताकुलितो विषण्ण: कविर्वियोगीव जनोऽभ्यसर्पत् ॥
इस प्रकार वक्रोक्ति आदि शब्दालङ्कारों की भाँति उत्प्रेक्षादि अर्थालङ्कारों का द्वयर्थक काव्य रचना के लिये महत्व दर्शाते हुए कवि ने उनका प्रयोग अपने द्विसन्धान में कुशलतापूर्वक किया है। द्विसन्धान-महाकाव्य में विन्यस्त अर्थालङ्कारों का विवेचन इस प्रकार है१. उपमा
संस्कृत काव्यशास्त्र में उपमा सर्वाधिक महत्वपूर्ण, प्राचीनतम तथा प्रसिद्ध अलंकार है । उपमेय एवं उपमान में वैधर्म्य-रहित वाच्य-सादृश्य उपमा कहलाता है। द्विसन्धान-महाकाव्य मे उपमालंकार का प्रयोग बहुत सुन्दरतापूर्वक हुआ हैस्वमर्पयन् गुरुमधिदेवतामिव
स्वबान्धवं गुरुमिव बह्वमन्यत । १. द्विस.,९.४५ २. 'साम्यं वाच्यमवैधर्म्य वाक्यैक्य उपमा द्वयोः ॥'सा.द.१०.१४