________________
सप्तम अध्याय
छन्द-योजना
काव्य में जिस प्रकार रस, अलंकार आदि की उपस्थिति आवश्यक है, उसी प्रकार छन्द भी काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि तथा रससिद्धि के लिये अनिवार्य हैं । अधिकांश साहित्यशास्त्रियों ने छन्दोभङ्ग को रसास्वाद में व्याघात उत्पन्न करने वाला कहा है । यहाँ तक कि एक स्थान पर छन्द या वृत्तभङ्ग करने वाले कवि को कवि की संज्ञा दी गयी है
गणयन्ति नापशब्दं न वृत्तभङ्गक्षयं न चार्थस्य ।
रसिकत्वेनाकुलिता वेश्यापतयः कुकवयश्च ॥ १
इस प्रकार छन्द काव्य के लिये सर्वथा आवश्यक तत्त्व है । 'छन्दयति आह्लादयति’ अथवा ‘छन्द्यते आह्लाद्यते अनेन इति छन्द:' व्युत्पत्ति के अनुसार छन्द का अर्थ है आह्लादकत्व । यह आह्लाद छन्द से किस प्रकार प्राप्त होता है ? किसी भी भाव की स्फुट अभिव्यंजना के लिये एक विशेष गति अथवा लय की आवश्यकता होती है, जिसके माध्यम से छन्द काव्य को आह्लादक बनाता है । संस्कृत काव्य - साहित्य में लय
पूर्वकालीन वैदिक-साहित्य में प्रत्येक शब्द अपना निर्दिष्ट अर्थ ही देता है । इसी कारणवश वेद-मन्त्रों में शब्द का अस्तित्व लयमुक्त रहा । लय की आवश्यकता अथवा उपेक्षा के परिणाम चाहे जो भी रहे हों, परन्तु परवर्ती वैदिक साहित्य में घटनाओं तथा शब्दावली के आधार पर विशिष्ट लयों का प्रयोग होने लगा । जबकि लौकिक संस्कृत साहित्य में नितान्त भिन्न दशा दृष्टिगोचर होती है । १. सुभाषितरत्नभाण्डागार, प्रकरण २, कुकविनिन्दा, १०