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सन्धान- कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
परिषजति परस्परं समेत्य प्रतिमिथुने कुचमण्डलं बबाधे | भजति हि निजकर्कशं न पीडा कमपरमध्यगतापवारकं वा ॥ १ प्रस्तुत पद्य में आलिङ्गन से उत्पन्न उत्तेजना की अभिव्यक्ति द्वारा लघु वर्ण बहुल पुष्पिताग्रा छन्द से शृङ्गार की मनोहारी योजना हुई है ।
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क्षेपयन्निव मुखामुखिमानं मानसीं कलुषतां कुसुमेषोः । संविभाषिषुरिवासवमत्तश्चुम्बनेषु रमणः क्वणति स्म ॥२
प्रस्तुत उद्धरण में स्वागता छन्द से शृङ्गार रस की अभिव्यञ्जना हुई है । मध्य प्रयुक्त सर्वलघु (गण) प्रेमी द्वारा किये गये चुम्बन की उत्तेजना को दर्शाता है ।
रागं नेत्रे नैव चित्तं मुखं च
स्त्रीणां पानान्मानजिह्मं जगाहे ।
द्वेधैकोऽभूद्बद्धपानोऽपि पाण्डुः
कान्तास्योष्पस्वेदभावादिवौष्ठः ॥ ३
यहाँ शालिनी छन्द की योजना से शृङ्गार की अभिव्यक्ति हुई है, किन्तु प्रारम्भ में पाँच गुरु वर्ण संभोग से उत्पन्न शरीर के शैथिल्य तथा क्लान्तता के बोधक है ।
स सागरावर्तधनुर्धरो नरो नभः सदां कामविमानसंहतिम् । अयत्नसंक्लृप्तगवाक्षपद्धतिं चकार शातैर्विशिखैर्विहायसि ॥४
इस उद्धरण में वंशस्थ के माध्यम से वीर रस की योजना की गयी है । यद्यपि यह गुरु वर्ण बहुल छन्द है, तथापि मध्यवर्ती लघु वर्णों से लक्ष्मण और अर्जुन द्वारा की गयी बाण वर्षा से उत्पन्न उत्तेजना का प्राकट्य स्पष्ट है ।
मत्तसुतामिव चमूं तां तमोघमयो जयत् ।
शरभिन्नं धियारीणां तान्तमोघमयोजयत् । ५
९. वही, १५.१९
२.
द्विस, १७.६७
३. वही, १७.७५
४.
वही, ६.२३
५.
वही,१८.१६