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छन्द-योजना
२०५ अनुष्टुप्वर्णन तथा वृत्तान्तों के नियोजन के लिये प्रयोग में लाया जाता है । यहाँ भी ‘युद्ध वर्णन' का निबन्धन अनुष्टुप् में हुआ है, किन्तु युद्ध-वर्णन का प्रसङ्ग होने के कारण वीर रस की अभिव्यञ्जना हुई है। द्विसन्धान-महाकाव्य में छन्द-योजना
छन्दों के सन्दर्भ में संस्कृत की विभिन्न प्रकार की रचनाओं में महाकाव्य जितनी नियमित और विविधतापूर्ण रचना अन्य नहीं । महाकाव्य सर्गों में विभक्त होता है और प्रत्येक सर्ग किसी विशेष छन्द से प्रारम्भ होता है। जो छन्द प्रारम्भ में प्रयुक्त होता है, वह प्राय: बिना किसी व्यवधान के सर्ग के अन्त तक प्रयोग में आता है । परन्तु, अन्तिम एक या दो पद्यों में शेष सर्ग से पृथक् छन्द प्रयोग किया जाता है, जो उस सर्ग के अन्त अथवा नये सर्ग के प्रारम्भ को सूचित करता है। द्विसन्धान-महाकाव्य में जहाँ एक ओर सर्गान्त में एक या दो छन्दों को परिवर्तित करने की परम्परा का पालन किया गया है, वहीं दूसरी ओर सम्पूर्ण सर्ग में एक ही छन्द-प्रयोग की परम्परा का पालन प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, नवम तथा अष्टादश सर्गों में ही हो पाया है। द्विसन्धान-महाकाव्य की रचना में धनञ्जय ने जिन छन्दों की योजना की है, उन्हें वृत्तरत्नाकर के आधार पर निम्न रूप से वर्गीकृत किया जा सकता है
(क) समवृत्त (१) अनुष्टुप
७.१-९४; ९.१-५१; १८.१४४. त्रिष्टुप् जाति के छन्द(२) इन्द्रवज्रा
८.२१, २३, ४१, ४२, ४४; १०.३६; १७.८५-८६. (३) उपजाति
२.३१, ३३; ३.१-३८,४०, ५.१-६४;६.४७-४८; ८.१८, २५, २८, २९, ३४-४०,४३, ४५-४७,४९,५१,५४,५५,५७; १०.३९-४०; ११.३२,३३,३५, ३६; १२.४८; १३.३०, ३२, ३५; १४:२५, २७, २८, ३३-३६; १६.१-८२; १७.४५,४६,५३, ५५,५७,६०,६२-६४,६८,७३,७७.