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अलङ्कार-विन्यास
छोत्कारच्छातजठरैस्तृणकौतुककङ्कणैः बन्धूकतिलकन्यासैर्नीलोत्पलवतंसकैः ।। महाकुचभराकृष्टसंक्षिप्तान्तर्भुजान्तरैः । क्षिपद्भिः केकरान् स्वस्मिन् नियन्तुमसहैरिव ।। सिञ्चद्भिखि लावण्यरसवृष्ट्या दिगन्तरम्।
कैदारिकगतैर्दारैश्चकितं विनिचायितम् ॥
अभिप्राय यह है कि शू शू करने के कारण कृशोदरियों, घास के मंगलसूत्र तथा कंकणधारिणी, बन्धूक पुष्प के तिलक से विभूषित, नीलकमल के कर्ण-भूषण से सुशोभित, उन्नत स्तनों के भार से झुकी, संक्षिप्त भुजान्तर्वर्ती केकर भूषण अथवा कटाक्षों को अपने आप में न सम्हाल सकने के ही कारण डालती हुई, सौन्दर्य के रस की वृष्टि के द्वारा समस्त दिशाओं को सींचती-सी खलिहानों में बैठी स्त्रियों ने क्रमश: भय तथा उत्कण्ठा से चकित होते हुए रावण तथा शरद् को देखा। इस प्रकार यहाँ स्त्रियों के सौन्दर्य का साङ्ग सूक्ष्म-चित्रण चमत्कारपूर्ण शैली में यथावत् हुआ है, अत: स्वभावोक्ति अलङ्कार है। १९. सङ्कर
__जब अनेक अलङ्कार परस्पर इस प्रकार मिले रहें, कि उनको पृथक् न किया जा सके, तो सङ्कर अलङ्कार होता है । इसको इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जहाँ कई अलङ्कारों में अङ्गागिभाव, हो जहाँ एक ही आश्रय (शब्द और अर्थ) में अनेक अलङ्कारों की स्थिति हो अथवा जहाँ कई अलङ्कारों का सन्देह होता हो, वहाँ सङ्कर अलङ्कार होता है । द्विसन्धान में इसका विन्यास इस प्रकार हुआ है
रथेषु तेषां जगतीभुजो ध्वजान्महीभुजौ चिच्छिदतुर्भुजानिव।
तथाक्षुरप्रैरनयैः क्रियाफलं मदातिलोभाविव वाजिनां युगम् ॥
प्रस्तुत उद्धरण में दोनों राघव-पाण्डव राजाओं ने शत्रु राजाओं के रथों पर लहराती बाहुओं के समान ध्वजाओं को अपने क्षुरप्र बाणों के द्वारा काट डाला था। १. द्विस.,७.१०-१२ २. सा.द.,१०९९ ३. द्विस.,६:२०