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अलङ्कार- विन्यास
३. गतिचित्र
संस्कृत काव्यशास्त्र में पठितिभङ्गविशेष को गति कहा गया है । " पठितिभङ्गविशेष से अभिप्राय है - एक श्लोक में लिखे हुए वर्णों को एक विशेष क्रम से सीधे, उलटे, प्रथमपाद, द्वितीयपाद आदि पादश:, वर्णभेदश: आदि पढ़ने पर भी उनकी सार्थकता, एक अथवा अनेकार्थता, एक ही श्लोक से दूसरे छन्द, दूसरी भाषा अथवा अर्थ का श्लोकोत्थान । इस प्रकार यह श्लोक के वर्ण अथवा पाद, तुरङ्गगति, गोमूत्रिका, अर्धभ्रम, सर्वतोभद्र आदि, पशु आदि की गतियों, तत्कृतचिह्नों तथा वर्ण विन्यास क्रमों पर अवलम्बित होता है । अभिप्राय यह है कि गतिचित्रों में कुछ का मूलाधार यमक है, कुछ का पशुगति तथा कुछ का वर्णविन्यास । द्विसन्धान में उपलब्ध गतिचित्रों का विवेचन इस प्रकार है
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(i) गतप्रत्यागत
जब किसी पद्य के प्रथम पाद की विपरीत क्रम से पुनरावृत्ति होने पर द्वितीय पाद और इसी प्रकार तृतीय पाद से चतुर्थ पाद बनता हो, तो विपरीत पुनरावृत्ति के कारण उसे गतप्रत्यागत गति चित्र कहा जाता है । दण्डी ने इसे पादप्रतिलोम संज्ञा से अभिहित किया है ।२ द्विसन्धान में गतप्रत्यागत का विन्यास इस प्रकार हुआ हैतेजिते तमसा जेरे रेजेऽसामततेऽजिते । भासिते रदनारीभे भेरीनादरतेसिभा ॥ ३
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प्रस्तुत उद्धरण के विषमपादों में गति है तथा समपादों में प्रत्यागति । अभिप्राय यह है कि इस पद्य में प्रथम पाद के अन्तिम वर्ण से पुनः प्रतिलोम पाठ द्वारा द्वितीय पाद बन जाता है और इसी प्रकार तृतीय पाद से चतुर्थ पाद बन जाता है । अतएव यहाँ गतप्रत्यागत का विन्यास सिद्ध है ।
(ii) तदक्षरगत
जहाँ श्लोकार्ध की विपरीत क्रम से पुनरावृत्ति होने पर उत्तरार्ध बन जाए, उसे तदक्षरगत गति चित्र कहा गया है । दण्डी ने इसे श्लोकार्धप्रतिलोम कहा है । ४ द्विसन्धान में इसका प्रयोग निम्न प्रकार से हुआ है
१.
सर.कण्ठा.,२.१०९ पर रत्नेश्वर कृत 'रत्नदर्पण' संस्कृत टीका, पृ. ४००
२. काव्या., ३.७३
३. द्विस.,१८.३०
४.
काव्या., ३.७३