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द्विसन्धान-महाकाव्य का सन्धानात्मक शिल्प-विधान विशिष्ट प्रभया प्रतापेनेत्यर्थः, किं कृत्वा? पूर्व सत्यत: सत्यात् एनं प्रतिविष्णु जेष्यामीति निश्चयात् व्यूहे समुत्पत्यागत्य" । इस प्रकार स्पष्ट है कि सत्यतो' पद का एक स्थान पर 'सत्यात्' तथा दूसरे पर 'सती समीचीना-अत: प्रतिविष्णुवधात्', 'विभया' पद का 'विगतविधुरा' तथा 'विशिष्ट प्रभया', 'व्यूहे' पद का 'रणे' तथा 'परिणीता', 'समुत्पत्या' पद का ‘समुत्पत्य आगत्य-आ लक्ष्मी:' तथा 'समुत् सहर्षा–पत्या स्वामिना विष्णुना' एवं इसी प्रकार ‘महोरसा' पद का 'तेजोरसा' व 'विस्तीर्णवक्षसा' अर्थ निष्पन्न होते हैं। ३. चित्रालंकारमूलक सन्धान-विधि
सन्धान-विधि के लिये श्लेष तथा यमक के समान चित्रालंकारों की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं। यहाँ तक धनञ्जय भी राम आदि अथवा युधिष्ठिर आदि राजपुत्रों द्वारा सीखी गयी युद्ध विद्या के विभिन्न विषयों में अहि-तुरग-चक्र आदि व्यूह रचना को काव्यशास्त्रीय अहि-तुरग-चक्र आदि आकार-चित्र के तुल्य बताते हैं। उन्होंने चित्रालंकार की महत्ता का वर्णनमात्र ही नहीं किया है, अपितु उसका प्रयोग कर सन्धान-विधि को समृद्ध भी बनाया है। चित्रालंकारों के विभिन्न भेदों में अर्थवैभिन्य के क्षेत्र में 'गति-चित्र' तथा 'बन्ध-चित्र' अधिक सबल सिद्ध हुए हैं । गति-चित्र के अन्तर्गत मूलत: अनुलोम-प्रतिलोम अथवा गतप्रत्यागत शैली का प्रयोग होता है । इसी गतप्रत्यागत शैली से नये पद्य का निर्माण भी हो जाता है। स्पष्ट है कि इस प्रकार रचित नया पद्य भिन्नार्थक भी होगा। द्विसन्धान में ऐसे गति-चित्रों का निबन्धन अठारहवें सर्ग में विशेष रूप से किया गया है। उदाहरणत:
निजतो हि धराराधी सदा नाम रवी रुचा।
वेधसा जनितो भूयो योगे वेगनयेन सन् ॥
उक्त पद्य का अर्थ इस प्रकार है-'दैवरूपी प्रजापति ने अपने तेज के द्वारा सूर्य को बनाया था, जो सदैव बिना अनुपस्थिति के पृथ्वी की आराधना करता है तथा योग में स्थित उसने ही अपने नीतिप्रवाह से साधु राजा की सृष्टि की थी, जो १. द्विस,१८.१०५ पर पदकौमुदी टीका २. वही,३.३७ ३. वही,१८.१३८