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अलङ्कार-विन्यास
१७३ पर भी तैर गये थे। इस प्रकार ‘पराक्रम को नहीं छोड़ा' यहाँ पर ध्वनि में परिवर्तन कर सैनिकों के भय अथवा कायरता की अभिव्यक्ति की गयी है, अत: वक्रोक्ति है। इसी प्रकार
अन्तरङ्गमनुभावमाकृति: संयमो गुरुकुलं श्रुतं शमः । वागियं च तव तात सौष्ठवं साधु सेधयति मार्दवं क्षमा ।।
प्रस्तुत पद्य का, हे तात ! तुम्हारी यह आकृति ही मन में भावों को बता रही है, आत्मनियन्त्रण महान् कुल को, शान्ति शास्त्रज्ञान को, वचन शिष्टता को एवं सहिष्णुता कोमलता को प्रकट कर रही है। यह अर्थ, ध्वनि में परिवर्तन करने पर 'तम्हारी आकृति कभावों को, असंयम पितवंश को, उग्रता निरक्षरता को. भाषा अशिष्टता को एवं उग्रता अहंकार को प्रकट कर रहे हैं । इस अन्यार्थ में परिवर्तित हो जाता है, अत: वक्रोक्ति है।
चित्रालङ्कार
जहाँ काव्य में विविध भङ्गी-विशेष के आधार पर क्रम और अक्षरों की विन्यास-विभिन्नता के द्वारा साङ्क अथवा आश्चर्यकारी वस्तुओं के रूपों की रचना की जाए, उसे चित्रालङ्कार कहते हैं । सामान्यत: संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने इसका निरूपण अनुप्रास, यमक तथा श्लेष आदि शब्दालङ्कारों के पश्चात् किया है, अत: इसका इन शब्दालङ्कारों से प्रभावित होकर कृत्रिम व शब्दाडम्बरपूर्ण रचनाओं के निर्माण में प्रभावी स्थान होना स्वाभाविक ही है। चित्रालङ्कारों का प्रारम्भिक काव्यशास्त्रीय विवेचन यद्यपि स्पष्ट नहीं है, किन्तु भोज तक आते-आते इनका स्पष्ट रूप तथा विवेचन काव्यशास्त्र में देखने में आता है। चित्रालङ्कार-वर्ण चित्र, स्थान चित्र, स्वर चित्र, आकार चित्र, गति चित्र, बन्ध चित्र तथा गढ़ चित्र आदि भेदों में विभाजित होकर अत्यन्त समृद्धिशाली परम्परा के रूप में विकसित हुए हैं ।३ द्विसन्धान-महाकाव्य में इनका प्रयोग सन्धान-शिल्प को सफल बनाने में बहुत ही सहायक सिद्ध हुआ है। द्विसन्धान आदि-सन्धानकाव्य है, अत: इसमें सभी
१. वही,१०.२३ २. भङ्ग्यन्तरकृततत्क्रमवर्णनिमित्तानि वस्तुरूपाणि ।
साङ्कानि विचित्राणि च रच्यन्ते यत्र तच्चित्रम्। ,का.रु.,५.१ ३. सर.कण्ठा .,२.१०९