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अलङ्कार-विन्यास
१७१ विश्वनाथ ने इस प्रकार के अलंकार-विन्यास को लाटानुप्रास के अन्तर्गत माना है। (ग) महायमक
__चारों पादों के एक समान होने पर महायमक होता है। भरत ने इसे चतुर्व्यवसित यमक के नाम से सम्बोधित किया है । द्विसन्धान में इसका विन्यास इस प्रकार हुआ है
समयासीदसौ जन्यं समयासीदसौजन्यं ।
समयासीदसौ जन्यं समयासीदसौजन्यं ॥३
इस उदाहरण में चारों पाद एकाकार हैं अर्थात् चारों पादों में परस्पर एक ही पाद का अभ्यास हुआ है, अत: महायमक है। ३. श्लेष
श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों का अभिधान होने पर श्लेषालङ्कार होता है। द्विसन्धान-महाकाव्य में श्लेष-विन्यास इस प्रकार हुआ है
कोटिशः कुञ्जरबलं शरपञ्जरमध्यगम् ।
रामभद्रं जनोऽद्यापि वनस्थितमिवैक्षत ।।
प्रस्तुत उद्धरण में 'कोटिश: कुञ्जरबलं' का एक ओर ‘करोड़ों हाथियों के बल का धारक' अर्थ है, तो दूसरी ओर करोड़ों हाथियों की सेना' । 'रामभद्रं का अर्थ रामायण के पक्ष में 'रामचन्द्र' है तो महाभारत के पक्ष में 'सुन्दर तथा भद्र जाति वाले' । इसी प्रकार 'वनस्थितम्' भी श्लेष के माध्यम से 'वनवासी' तथा 'वन में रहकर अथवा जाकर' अर्थ देता है । फलत: रामायणपक्ष में इस पद्य का अर्थ हैकरोड़ों हाथियों के बल के धारक तथा बाणों के जाल में से जाते हुए रामभद्र (रामचन्द्र) को इस युद्ध के समय भी लोग बनवासी ही देखते थे। महाभारत के पक्ष में- (युद्ध-स्थली में खड़ी) करोड़ों सुन्दर, भद्रजाति के हाथियों की सेना को १. द्रष्टव्य- सा.द,१०७ २. ना.शा.,१६.८२ ३. द्विस.,१८.१२८ ४. सा.द.,१०.११ ५. द्विस.,९.४५